बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

शिक्षक : राष्ट्र-विधाता एवं राष्ट्र-निर्माता

शिक्षक : राष्ट्र-विधाता एवं राष्ट्र-निर्माता (आलेख)

गुरूर्ब्रह्मा  गुरूर्विष्णुः  गुरूर्देवो  महेश्वरः |
गुरोर्साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः ||
-श्वेताश्वेत्तर उपनिषद्
प्राचीन काल में गुरू के प्रति उज्ज्वल भावों का समन्वय था | गुरू ब्रह्मा है, विष्णु है, महेश्वर है | वह समस्त ब्रह्मांड है | उसे प्रणाम है | यह श्लोक उस चरित्र के बारे में बातलाता है, जो मनुष्यों के व्यक्तित्व का निर्माण करता है | राष्ट्र का निर्माता, शिक्षा-पद्धति की आधार-शिला, समाज को गति प्रदान करने वाला शिक्षक ही है | शिक्षक देश की संस्कृति का निर्माता है और देश के सांस्कृतिक गौरव को अमर बनाए रखने में उनका महत्वपूर्ण हाथ होता है | हमारी संस्कृति का परिचय भावी नागरिकों को अध्यापक ही देता है | समाज में विनम्रता और शिष्टता का पाठ सिखाया जाता था, बल्कि अनेक प्रकार के दुर्व्यसनों से दूर रहने और भोगेश्वर्य के प्रति वितृष्णा भी अनुभव होने लग जाती थी | उस समय शिक्षकों एवं विद्यार्थियों के मध्य अपनत्व एवं सौहार्द्र का सम्बन्ध रहता था | छात्र अपने गुरू का पूर्ण सम्मान करते थे और उनके हर आदेश का पालन करे में विलम्ब नहीं करते थे | शिक्षक भी उन्हें सच्चे हृदय से शिक्षा प्रदान करते थे | इस तथ्य को जानते हुए तत्कालीन समाज और राज्य भी शिक्षकों का अधिकतम सम्मान करते थे और यथासंभव उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये तत्परता दिखाई जाती थी | किन्तु आज यह स्थिति नहीं रही है | आज शिक्षा का दान शिक्षक की आजीविका का साधन बन गया है और विद्यार्थियों में शिक्षकों के प्रति श्रद्धा का अभाव है | समाज ने शिक्षक के प्रति उपेक्षा ही दिखाई देती है | राज्य तो शिक्षकों का स्वामी बना हुआ है | इस स्थिति में शिक्षक स्वयं को कुंठा-ग्रस्त पायें तो आश्चर्य नहीं | फिर सच्ची शिक्षा का लक्ष्य तो बहुत ऊँचा होता है | अतः शिक्षक के लिये आवश्यक है कि वह कुंठाओं को दूर करे, तभी वह सच्ची शिक्षा प्रदान कर सकता है |    
       यह सच्ची शिक्षा क्या है ? इस सम्बन्ध में महात्मा गाँधी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों पर ध्यान देने की आवश्यकता है | “सा विद्या या विमुक्तये” इस प्राचीन कालीन ऋषि वाक्य की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा- “जो चित्त को शुद्ध न करे, मन तथा इन्द्रियों पर संयम न सिखाए, निर्भयता एवं स्वावलंबन उत्पन्न न करे, जीवन-निर्वाह का साधन न बताये और गुलामी से छूटने तथा स्वतंत्रता में रहने की सामर्थ्य तथा उत्साह उत्पन्न न करे, उस शिक्षा में चाहे कितनी जानकारी का खजाना या तार्किक पांडित्य उपलब्ध हो, वह शिक्षा नहीं है, यदि है तो अधूरी शिक्षा है |” प्रत्येक बालक संस्कार रूप में कुछ प्रतिभा-शक्ति लिये हुए संसार में जन्म लेता है | उस जन्मजात प्रतिभा एवं शक्ति को उभारकर स्वस्थ रूप प्रदान माता-पिता एवं शिक्षक का परम कर्तव्य है | वे चाहें तो सावधानी एवं बुद्धिमत्ता से उपयुक्त वातावरण एवं विचार-संजीवनी शक्ति रूपी उर्वरता प्रदान कर महाप्राण शक्ति का निर्माण कर सकते हैं, अन्यथा अपनी उपेक्षा द्वारा उसे स्वच्छन्दतापूर्ण व्यवहार से दानव निर्माण में सहायक होंगे |
       सत्य-विद्या के स्वरूप और ध्येय को पहचान कर शिक्षक और विद्यार्थी शिक्षा-क्रम को अपनाएँ तो निश्चय ही मानव की स्वार्थ-परायण पाशविक वृत्तियों का दमन होकर, विश्व-प्रेम की स्थापना संभव हो सकती है | योगी अरविन्द ने शिक्षकों को राष्ट्र की संस्कृति का चतुर माली कहा है | वे संस्कारों की जड़ों को खाद देते हैं तथा अपने श्रम से सींचकर महाप्राण शक्ति का निर्माण करते हैं | विश्वकवि टैगोर ने विद्यालयों को मानवता का केंद्र कहकर संबोधित किया है | इसका आशय यही है कि भारतीय परम्परा में हुए आत्मदर्शी योगियों एवं साहित्य निर्माताओं की सूक्ष्म-दृष्टि पर आधारित जीवन की जो मान्यताएँ हमारे पथ-प्रदर्शन हेतु उपलब्ध हैं, उन्हें ह्रदय में स्थान देकर हमारा शिक्षक मनोवैज्ञानिक ढंग से और परिस्थितियों के अनुरूप शिक्षा को ढालकर विद्यार्थियों को विद्या का दान करें, तभी उन्नतिशील सुख-समृद्धि से पूर्ण स्पृहणीय समाज की रचना हो सकती है |
       वस्तुतः शिक्षक वह प्रकाश-पुंज है, जो अपनी आत्मा की ज्योति को समाज के मानस में व्याप्त कर अपने व्यक्तित्व की आभा से अखिल राष्ट्र को प्रदीप्त कर सकता है | वही शिक्षक यदि प्रमाद करे, तो राष्ट्र को अधःपतन की ओर ले जाने में सहायक हो सकता है | शिक्षक समाज से अज्ञानांधकार का हरण करने वाला प्रकाश-स्तंभ है | शिक्षक वह सर्वशक्ति सम्पन्न व्यक्तित्व है, जो प्राणिमात्र के उत्कर्ष और कल्याण के लिये अपना समस्त जीवन समर्पित कर देता है | उसके इस समर्पण में ही समाज व राष्ट्र का कल्याण निहित है | शिक्षक नैतिक, आध्यात्मिक, मानसिक तथा भौतिक शक्तियों का अथाह भंडार होता है | उसमें अदम्य राष्ट्र-निर्माण शक्ति केंद्रीभूत रहती है और उसमें मानवता का विकास करने की अनुपम क्षमता भी होती है, अपनी इसी शक्ति और क्षमता का सदुपयोग करके ही शिक्षक सुन्दर समाज की रचना कर सकता है और इसके विपरीत उसकी असावधानी से समाज का पतन अवश्यंभावी है |
       शिक्षक तथा समाज का घनिष्ठ सम्बन्ध है | शिक्षक के विचार, मन:स्थिति, आचरण और व्यवहार ज्ञात एवं अज्ञात रूप से समाज को प्रभावित करते हैं | शिक्षक का चरित्र विद्यार्थी तथा समाज के लिये आचरण की पाठशाला है | कक्षा में दिए हुए वक्तव्य एवं अध्यापन से कहीं अधिक प्रभाव उनके निजी स्वभाव, प्रकृति और आचरण का विद्यार्थी प्रभाव परिलक्षित होता है | इसलिए कक्षा में पाठ्यपुस्तक पढ़ाने के साथ-साथ अध्यापक को अपने आचरण एवं व्यवहार के प्रति सतर्क होना वांछनीय है | महात्मा गाँधी आचरणहीन ज्ञान को सुगंधि में लिपटे हुए शव के समान समझते थे | वास्तव में मनुष्य की महत्ता उसके उत्तम चरित्र में है, यदि अध्यापक के ह्रदय में सच्चे अर्थों में अच्छे समाज के निर्माण की आकांक्षा है, तो निश्चय ही वह अपना चरित्र उन आदर्शों में व्यवस्थित करने के लिये प्रयत्नशील होगा, जिनसे वह समाज को परिवर्तित करना चाहता है | उसके हाथ में विद्यार्थी मण्डल की महान शक्ति है, जिसके माध्यम से वह समाज की पुन: रचना कर सकता है|
       हुमायूँ कबीर के अनुसार “शिक्षक राष्ट्र के भाग्य निर्णायक हैं यह कथन प्रत्यक्ष रूप से सत्य प्रतीत होता है, परन्तु अब इस बात पर अधिक बल देने की आवश्यकता है कि शिक्षक ही शिक्षा के पुनर्निर्माण की महत्वपूर्ण कुँजी है | यह शिक्षक वर्ग कि योग्यता ही है, जो कि निर्णायक है |” शिक्षक को ईश्वर के समकक्ष माना जाता था | इस विषय में एस. बाल कृष्ण जोशी का कथन उल्लेखनीय है | उनके शब्दों में, “एक सच्चा शिक्षक धन के अभाव में धनी होता है, उसकी सम्पत्ति का विचार बैंक में जमा धन से नहीं किया जा सकता |” शिक्षक ही विद्यालय तथा शिक्षा-पद्धति की वास्तविक गत्यात्मक शक्ति है | शिक्षक ही वह शक्ति है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आने वाली संततियों पर अपना प्रभाव डालती है | शिक्षक ही राष्ट्रीय तथा भौगोलिक सीमाओं को अतिक्रमित कर विश्व-व्यवस्था तथा मानव जाति को उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है | इस प्रकार शिक्षक का महत्व समाज तथा शिक्षा-व्यवस्था दोनों में ही स्पष्ट है | वस्तुत: शिक्षक उन भावी नागरिकों का निर्माण करता है, जिनके ऊपर राष्ट्र के उत्थान का भर है | इस संदर्भ में सैयदेन कहते हैं – “हमें यह नहीं भूलना चाहिए शिक्षण एक उद्दात व्यवसाय है और मानव-इतिहास की महानतम तथा श्रेष्ठतम विभूतियों ने इस व्यवसाय को अपनाया था, क्योंकि सभी युगों में समस्त महान धार्मिक नेता तथा सुधारक – बुद्ध, कन्फ्यूशियस, सुकरात, मुहम्मद, गुरू नानक, कबीर साहब आदि इस शब्द के सच्चे अर्थ में मानव-जाति के शिक्षक थे |”
                                                      
                                                    डॉ. वी. के. पाठक
                         साभार : डी.ई.आई. पत्रिका (2000-01) से पुनर्प्रकाशित