आधुनिक भारत में
अंग्रेजों के समय से जो इतिहास पढाया जाता है वह चन्द्रगुप्त मौर्य के वंश से
आरम्भ होता है। उस से पूर्व के इतिहास को ‘ प्रमाण-रहित’ कह कर नकार दिया जाता है। हमारे ‘देसी अंग्रेजोँ’ को यदि सर जान मार्शल
प्रमाणित नहीं करते तो हमारे ’बुद्धिजीवियों’ को विश्वास ही नहीं होना था कि हडप्पा और मोहनजोदड़ो
स्थल ईसा से लगभग 3000 वर्ष पूर्व के समय के हैं
और वहाँ पर ही विश्व की प्रथम सभ्यता ने जन्म लिया था।
विदेशी इतिहासकारों के
उल्लेख विश्व की प्राचीनतम् सिन्धु घाटी सभ्यता मोहनजोदड़ो के बारे में पाये गये
उल्लेखों को सुलझाने के प्रयत्न अभी भी चल रहे हैं। जब पुरातत्व शास्त्रियों ने
पिछली शताब्दी में मोहनजोदड़ो स्थल की खुदाई के अवशेषों का निरीक्षण किया था तो
उन्होंने देखा कि वहाँ की गलियों में नर-कंकाल पडे थे। कई अस्थि
पिंजर चित अवस्था में लेटे थे और कई अस्थि पिंजरों ने एक दूसरे के हाथ इस तरह पकड रखे थे मानों
किसी विपत्ति नें उन्हें अचानक उस अवस्था में पहुँचा दिया था।
उन नर कंकालों पर उसी
प्रकार की रेडियो -एक्टीविटी के चिन्ह थे जैसे कि जापानी नगर हिरोशिमा
और नागासाकी के कंकालों पर परमाणु बम विस्फोट के पश्चात देखे गये थे।
मोहन जोदड़ो स्थल के
अवशेषों पर नाईट्रिफिकेशन के जो चिन्ह पाये गये थे उस का कोई स्पष्ट कारण नहीं था
क्योंकि ऐसी अवस्था केवल अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही हो सकती है।
मोहनजोदड़ो की भौगोलिक
स्थिति मोहनजोदड़ो सिन्धु नदी के दो टापुओं पर स्थित है। उस के चारों ओर दो
किलोमीटर के क्षेत्र में तीन प्रकार की तबाही देखी जा सकती है जो मध्य केन्द्र से
आरम्भ हो कर बाहर की तरफ गोलाकार फैल गयी थी। पुरातत्व विशेषज्ञ ने पाया कि मिट्टी
चूने के बर्तनों के अवशेष किसी उष्णता के कारण पिघल कर एक दूसरे के साथ जुड़ गये
थे। हजारों की संख्या में वहां पर पाये गये ढेरों को पुरातत्व विशेषज्ञोँ ने काले
पत्थरों ‘ब्लैक-स्टोन्स’ की संज्ञा दी।
वैसी दशा किसी ज्वालामुखी
से निकलने वाले लावे की राख के सूख जाने के कारण होती है। किन्तु मोहनजोदड़ो स्थल
के आस पास कहीं भी कोई ज्वालामुखी की राख जमी हुयी नहीं पाई गयी।
निष्कर्ष यही हो सकता है
कि किसी कारण अचानक ऊष्णता 2000
डिग्री तक पहुँची जिसमें
चीनी मिट्टी के पके हुये बर्तन भी पिघल गये । अगर ज्वालामुखी नहीं था तो इस प्रकार
की घटना परमाणु बम के विस्फोट पश्चात ही घटती है।
महाभारत के आलेखोँ मेँ ये
बात कही जाती है, इतिहास मौन है परन्तु
महाभारत युद्ध में महासंहारक क्षमता वाले अस्त्र शस्त्रों और विमान रथों के साथ एक
एटामिक प्रकार के युद्ध का उल्लेख भी मिलता है। महाभारत में उल्लेख है कि मय दानव
के विमान रथ का परिवृत 12 क्यूबिक था और उसमें चार पहिये लगे थे। देव दानवों के इस
युद्ध का वर्णन स्वरूप इतना विशाल है जैसे कि हम आधुनिक अस्त्र शस्त्रों से लैस
सेनाओं के मध्य परिकल्पना कर सकते हैं। इस युद्ध के वृतान्त से बहुत महत्वपूर्ण
जानकारी प्राप्त होती है। केवल संहारक शस्त्रों का ही प्रयोग नहीं अपितु इन्द्र के
वज्र अपने चक्रदार रिफलेक्टर के माध्यम से संहारक रूप में प्रगट होता है। उस
अस्त्र को जब दाग़ा गया तो एक विशालकाय अग्नि पुंज की तरह उसने अपने लक्ष्य को
निगल लिया था। वह विनाश कितना भयावह था इसका अनुमान महाभारत के निम्न स्पष्ट वर्णन
से लगाया जा सकता हैः-“अत्यन्त शक्तिशाली विमान
से एक शक्ति – युक्त अस्त्र प्रक्षेपित
किया गया… धुएँ के साथ अत्यन्त चमकदार ज्वाला, जिस की चमक दस हजार सूर्यों की चमक के बराबर थी, का अत्यन्त भव्य स्तम्भ उठा…वह वज्र के समान अज्ञात अस्त्र साक्षात् मृत्यु का भीमकाय
दूत था जिसने वृष्ण और अंधक के समस्त वंश को भस्म करके राख बना दिया…उनके शव इस प्रकार से जल गए थे कि पहचानने योग्य नहीं
थे. उनके बाल और नाखून अलग होकर गिर गए थे… बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के बर्तन टूट गए थे और
पक्षी सफेद पड़ चुके थे… कुछ ही घण्टों में समस्त
खाद्य पदार्थ संक्रमित होकर विषैले हो गए…उस अग्नि से बचने के लिए
योद्धाओं ने स्वयं को अपने अस्त्र-शस्त्रों सहित जलधाराओं में डुबा लिया…”
उपरोक्त वर्णन दृश्य रूप
में हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु विस्फोट के दृश्य जैसा दृष्टिगत होता है।
एक अन्य वृतान्त में श्री
कृष्ण अपने प्रतिद्वन्दी शल्व का आकाश में पीछा करते हैं। उसी समय आकाश में शल्व
का विमान ‘शुभः’ अदृष्य हो जाता है। उस को नष्ट करने के विचार से श्री
कृष्ण नें एक ऐसा अस्त्र छोडा जो आवाज के माध्यम से शत्रु को खोज कर उसे लक्ष्य कर
सकता था। आजकल ऐसे मिसाइल्स को हीट-सीकिंग और साऊड-सीकर्स कहते हैं और आधुनिक सेनाओं द्वारा प्रयोग किये
जाते हैं।
रामायण से भी… प्राचीन ग्रन्थों में चन्द्र यात्रा का उल्लेख किया
गया है। रामायण में भी विमान से चन्द्र यात्रा का विस्तारित उल्लेख है। इसी प्रकार
एक अन्य उल्लेख चन्द्र तल पर अश्विन के साथ युद्ध का वर्णन है जिससे भारत के
तात्कालिक अन्तरिक्ष ज्ञान तथा एन्टी-ग्रेविटी तकनीक के बारे में आभास मिलता है जो आज के
वैज्ञानिक तथ्यों के अनुरूप है जबकि अन्य मानव सभ्यताओं ने तो इस ओर कभी सोचा भी
नहीं था।
रामायण में हनुमान जी की
उड़ान का वर्णन किसी कोनकार्ड हवाई जहाज के सदृष्य है “समुत्पतित वेगात् तु वेगात् ते नगरोहिणः। संहृत्य
विटपान् सर्वान् समुत्पेतुः समन्ततः।। (45)…उदूहन्नुरुवेगन जगाम विमलsम्बरे…सारवन्तोsथ ये वृक्षा न्यमज्जँल्लवणाम्भसि… तस्य वानरसिहंहस्य प्लवमानस्य सागरम्। कक्षान्तरगतो
वायुजीर्मूत इव गर्जति।। (64)… यं यं देशं समुद्रस्य
जगाम स महाकपि। स तु तस्यांड्गवेगेन सोन्माद इव लक्ष्यते।। (68)… तिमिनक्रझषाः कूर्मा
दृश्यन्ते विवृतास्तदा…प्रविशन्नभ्रजालीनिनिष्पंतश्र्च
पुनःपुनः…” (82)“जिस समय वह कूदे, उस समय उनके वेग से
आकृष्ट हो कर पर्वत पर उगे हुये सब वृक्षउखड गये और अपनी सारी डालियों को समेट कर
उन के साथ ही सब ओर से वेग पूर्वक उड चले…हनुमान जी वृक्षों को
अपने महान वेग से उपर की ओर खींचते हुए निर्मल आकाश में अग्रसर होने लगे…उन वृक्षों में जो भारी थे, वह थोडी ही देर में गिर कर क्षार समुद्र में डूब गये…ऊपर ऊपर से समुद्र को पार करते हुए वानर सिहं हनुमान
की काँख से होकर निकली हुयी वायु बादल के समान गरजती थी… वह समुद्र के जिस जिस भाग में जाते थे वहाँ वहाँ उन
के अंग के वेग से उत्ताल तरंगें उठने लगतीं थीं उतः वह भाग उन्मतसे दिखाई देता था…जल के हट जाने के कारण समुद्र के भीतर रहने वाले मगर, नाकें, मछलियाँ और कछुए साफ साफ
दिखाई देते थे… वे बारम्बार बादलों के
समूह में घुस जाते और बाहर निकल आते थे…”
क्या कोई ऐरियोनाटिक विशेषज्ञ
इनकार कर सकता हैकि उपरोक्त वृतान्त किसी वेग गति से उडान भरने वाले विमान पर वायु
के भिन्न भिन्न दबावों का कलात्मिक और वैज्ञानिक चित्रण नहीं है? हम अंग्रेजी समाचार पत्रों में इस प्रकार के शीर्षक
अकसर पढते हैं कि ‘ओबामा फलाईज टू इण्डिया’– अब यदि दो हजार वर्ष पश्चातइस का पाठक यह अर्थ
निकालेंकि ओबामा वानर जाति के थे और हनुमान की तरह उड कर भारत गये थे तो वह उन के
अज्ञान को आप क्या कहेंगे?
राजस्थान से भी…
प्राचीन भारत में परमाणु
विस्फोट के अन्य और भी अनेकसाक्ष्य मिलते हैं। राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा
में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्ग मील का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर
रेडियोएक्टिव राख की मोटी सतह पाई जाती है, वैज्ञानिकों ने उसके पास
एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से
लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व
किसी विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे।
हमें गर्वित कौन करे?
भारतीय ज्ञान स्रोत के
ग्रन्थ प्रचुर संख्या में प्राप्त हो चुके है। उनमें से कितने ही संस्कृत से अन्य
भाषाओं में अनुवाद नहीं किये गये और ना ही पढे गये हैं। आवश्यकता है कि उन का
आंकलन करने के लिये उन पर शोध किया जाये। ‘यूएफओ (अन -आईडेन्टीफाईड औबजेक्ट ) तथा ‘उडन तशतरियों ‘के आधुनिक शोध कर्ताओं का
विचार रहा है किस भी यू एफ ओ तथा उडन तशतरियाँ या तो बाह्य जगत से आती हैं या किसी
देश के भेजे गये छद्म विमान हैं जो सैन्य समाचार एकत्रित करते हैं लेकिन वह आज तक
उन के स्रोत को पहचान नहीं पाये। ‘लक्ष्मण-रेखा’ प्रकार की अदृष्य ‘इलेक्ट्रानिक फैंस’ तो कोठियों में आज कल
पालतु जानवरों को सीमित रखने के लिये प्रयोग की जातीं हैं, अपने आप खुलने और बन्द हो जाने वाले दरवाजे किसी भी
मॉल में जा कर देखे जा सकते हैं। यह सभी चीजे पहले आश्चर्यजनक थीं परन्तु आज एक आम
बात बन चुकी हैं। ‘मन की गति से चलने वाले’ रावण के पुष्पक-विमान का ‘प्रोटोटाईप’ भी उडान भरने के लिये चीन
ने बना लिया है।
निस्संदेह रामायण तथा
महाभारत के ग्रंथकार दो प्रथक -प्रथक ऋषि थे और आजकलकी सैनाओं के साथ उन का कोई
सम्बन्ध नहीं था। वह दोनो महाऋषि थे और किसी साईंटिफिक – फिक्शन के थ्रिल्लर – राईटर नहीं थे। उन के उल्लेखों में समानता इस बात की
साक्षी है कि तथ्य क्या है और साहित्यक कल्पना क्या होती है। कल्पना को भी विकसित
होने के लिये किसी ठोस धरातल की आवश्यकता होती है।
भारत के असुरक्षित भण्डार
भारतीय मौसम-ज्ञान का इतिहास भी ऋगवेद
काल का है।उडन खटोलों के प्रयोग के लिये मौसमी प्रभाव का ज्ञानहोना अनिवार्य है। प्राचीन ग्रन्थों में
विमानों के बारे में विस्तरित जानकारी के साथ साथ मौसम की जानकारी भी संकलित है।
विस्तरित अन्तरीक्ष और समय चक्रों की गणना इत्यादि के सहायक विषय भारतीय ग्रन्थों में स्पष्ट रूप
से उल्लेखित हैं। भारत के ऋषि-मुनी तथा वेपर, मौसम और ऋतु का सूक्षम फर्क, वायु के प्रकार, आकाश का विस्तार तथा
खगौलिक समय सारिणी बनाने के बारे में में विस्तरित जानकारी रखते थे। वैदिक ज्ञान
कोई धार्मिक कवितायें नहीं अपितु पूर्णतया वैज्ञानिक उल्लेख है और भारत की विकसित
सभ्यता की पुष्टि करते है।
‘कंसेप्ट’ का जन्म पहले होता है और वह दीर्घ जीवी होती है।
कंसेप्ट को तकनीक के माध्यम से साकार किया जाता है किन्तु तकनीक अल्प जीवी होती है
और बदलती रहती है। अतः कम से कम यह तो प्रमाणित है कि आधुनिक विज्ञान की उन सभी
महत्वपूर्ण कंसेप्ट्स का जन्म भारत में हुआ जिन्हें साकार करने का दावा आज
पाश्चात्य वैज्ञानिक कर रहै हैं। प्राचीन भारतियों नें उडान के निर्देश ग्रन्थ स्वयं
लिखे थे। विमानों की देख रेख के विधान बनाये थे।यदि यथार्थ में ऐसा कुछ नहीं था तो
इस प्रकार के ग्रन्थ आज क्यों उपलब्द्ध होते? इस प्रकार के ग्रन्थों का
होना किसी लेखक का तिलस्मी साहित्य नहीं है अपितु ठोस यथार्थ है।
बज़बम
पाणिनि से लेकर राजा भोज
के काल तक हमें कई उल्लेख मिलते हैं कि तक्षशिला वल्लभी, धार, उज्जैन, तथा वैशाली में विश्वविद्यालय थे। इतिहास यह भी बताता
है कि दूसरी शताब्दी से ही नर संहार और शैक्षिक संस्थानों का हनन भी आरम्भ हो गया
था। इस के दो सौ वर्षपश्चात तो भारत में विदेशियों के आक्रमणों की बाढ प्रति वर्ष
आनी शुरु हो गयी थी। अरबों के आगमन के पश्चात तो सभी विद्यालय तथा पुस्तकालय अग्नि
की भेंट चढ़ा दिए गये थे और मानव विज्ञान की बहुत कुछ सम्पदा नष्ट हो गयी या शेष
लुप्त हो गयी। बचे खुचे उपलब्ध अवशेष धर्म-निर्पेक्ष नीति के कारण
ज्ञान केन्द्रों से बहिष्कृत कर दिये गये।
जर्मनी के नाझ़ियों ने
सर्वप्रथम बज़ बमों के लिये पल्स -जेट ईंजनों का अविष्कार किया था। यह एक रोचक तथ्य है कि सन 1930 से ही हिटलर तथा उस के
नाझी सलाहकार भारत तथा तिब्बत के इलाके में इसी ज्ञान सम्बन्धी तथ्यों की जानकारी
इकठ्ठी करने के लिये खोजी मिशन भेजते रहै हैं। समय के उलट फेरों के साथ साथ कदाचित
वह मशीनें और उन से सम्बन्धित रहिस्यमयी जानकारी भी नष्ट हो गयी थी।पाश्चात्य
वैज्ञानिक विश्व के सामने अपने सत्य का ढोल पीटते रहे कि “चन्द्र की धरती पर जल नहीं है”। फिर एक दिन भारतीय ‘चन्द्रयान मिशन’ नें चन्द्र पर जल होने के
प्रमाण दिये। अमेरिका ने पहले तो इस तथ्य को नकारा और अपने पुराने सत्य की पुष्टि
करने के लिये एक मिशन चन्द्र की धरती पर उतारा। उस मिशन ने भी भारतीय सत्यता को
स्वीकारा जिस के परिणाम स्वरूप अमेरिका आदि विकसित देशों ने दबे शब्दों में भारतीय
सत्यता को मान लिया।
इस के कुछ समय पश्चात एक
अन्य पौराणिक तथ्य की पुष्टि भी अमेरिका के नासा वैज्ञानिकों ने करी। भारत के
ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व कहा था कि “कोटि कोटिब्रह्माण्ड हैं”। अब पाश्चात्य वैज्ञानिक भी इसी बात को दोहरा रहे
हैं कि उन्हों नें बिलियन से अधिक गेलेख्सियों का पता लगाया है। अतः अधुनिक
विज्ञान और भारतीय प्राचीन ग्रन्थों के ज्ञान में कोई फर्क नहीं रहा जो स्वीकारा
नहीं जा सकता।
सत्य तो क्षितिज की तरह
होता है। जितना उस के समीप जाते हैं उतना ही वह और परे दिखाई देने लगता है। इसी
तथ्य को ऋषियों ने ‘माया’ कहा है। हिन्दू विचार धारा में ईश्वर के सिवा कोई
अन्य सत्य नहीं है। जो भी दिखता है वह केवल माया के भिन्न भिन्न रूप हैं जो नश्वर
हैं। कल आने वाले सत्य पहिले ज्ञात सत्यों को परिवर्तित कर सकते हैं और पू्र्णत्या
नकार भी सकते हैं। यह क्रम निरन्तर चलता रहता है। विज्ञान का यह सब से महत्वपूर्ण
तथ्य हिन्दू दार्शिनकों नें बहुत पहले ही खोज दिया था।
हमारी
दूषित शिक्षा का परिणाम
आधुनिक विमानों के
आविष्कार सम्बन्धी आलेख बताते हैं कि बीसवीं शताब्दी में दो पाश्चात्य जिज्ञासु
उडने के विचार से पक्षियों की तरह के पंख बाँध कर छत से कूद पडे थे और परिणाम स्वरूप
अपनी हड्डियाँ तुडवा बैठे थे, किन्तु भारतीय उल्लेखों
में इस प्रकार के फूहड वृतान्त नहीं हैं अपितु विमानों की उडान को क्रियावन्त करने
के साधन (इनफ्रास्टर्क्चर) भी दिखतेहैं जिसे आधुनिक
विज्ञान कीखोजों के साथ मिला कर परखा जा सकता है। सभी कुछ सम्भव हो चुका है और शेष जो रह गयाहै वह भी हो सकता है।
हमारे प्राचीन ग्रंथों
में वर्णित ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र जैसे अस्त्र
अवश्य ही परमाणु शक्ति से सम्पन्न थे, किन्तु हम स्वयं ही अपने
प्राचीन ग्रंथों में वर्णित विवरणों को मिथक मानते हैं और उनके आख्यान तथा
उपाख्यानों को कपोल कल्पना,हमारा ऐसा मानना केवल
हमें मिली दूषित शिक्षा का परिणाम है जो कि, अपने धर्मग्रंथों के
प्रति आस्था रखने वाले पूर्वाग्रह से युक्त, पाश्चात्य विद्वानों की
देन है, पता नहीं हम कभी इस दूषित शिक्षा से मुक्त होकर अपनी
शिक्षानीति के अनुरूप शिक्षा प्राप्त कर भी पाएँगे या नहीं।
जो विदेशी पर्यटक भारत आ
करचरस गाँजा पीने वाले अध नंगे फकीरों के चित्र पश्चिमी पत्रिकाओं में छपवाने के आदि हो चुके हैं वह भारत को सपेरों लुटेरों का ही देश
मान कर अपने विकास का बखान करते रहते हैं। वह भारत के प्राचीन इतिहास को कभी नहीं
माने गे। उन्हीं के सिखाये पढाये तोतों की तरह के कुछ भारतीय बुद्धिजीवी भी
पौराणिक तथ्यों को नकारते रहते हैं किन्तु सत्यता तो यह है कि उन्हों ने भारतीय
ज्ञान कोषों को अभी तक देखा ही नहीं है। जो कुछ विदेशी यहाँ से ले गये और उसी को
समझ कर जो कुछ विदेशी अपना सके वही आज के पाश्चात्य विज्ञान की उपलब्धियां हैं
जिन्हें हम यूरोप के विकसित देशों की देन मान रहे हैं।
य़ह आधुनिक भारतीय बुद्धिजीवियों
पर निर्भर करता है कि वह अपने पूर्वजों के अर्जित ज्ञान को पहचाने, उस की टूटी हुई कडियों को जोडें और उस पर अपना अधिकार
पुनः स्थापित करें या उस का उपहास उडा कर अपनी मूर्खता और अज्ञानता का प्रदर्शन
करते रहें|
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