विपश्यना, विपाशना अथवा अनापान जीवन जीने की कला या
प्रशिक्षण है, मन की शांति प्राप्त करने का यह सत्यापित एवं प्रायोगिक
उपलब्ध मार्ग है | विपश्यना शब्द पालि भाषा के वि+पश्यना से बना है, जिसका
शाब्दिक अर्थ है- वि-अर्थात् विशिष्टता या विशेष या वैज्ञानिक तरीके से | पश्यना-
अर्थात् देखना (संस्कृत की दृश क्रिया)| सम्पूर्ण रूप से कहें तो ऐसा मार्ग जो
विशिष्टता या विशेष या वैज्ञानिक तरीके से देखने का तरीका प्रशस्त करता है |
विपश्यना (Vipassana) भारत की एक
अत्यंत पुरातन ध्यान-विधि है। इसे आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध ने पुन: खोज निकाला
था। विपश्यना का अभिप्राय है कि जो वस्तु सचमुच जैसी हो,
उसे उसी प्रकार जान लेना। यह
अंतर्मन की गहराइयों तक जाकर आत्म-निरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की साधना है। अपने नैसर्गिक श्वास के
निरीक्षण से आरंभ करके अपने ही शरीर और चित्तधारा पर पल-पल होने वाली
परिवर्तनशील घटनाओं को तटस्थभाव से निरीक्षण करते हुए चित्त-विशोधन
और सद्गुण-वर्धन का यह अभ्यास साधक को किसी सांप्रदायिक आलंबन से बॅंधने नहीं देता।
इसीलिए यह साधना सर्वग्राह्य है, बिना किसी भेदभाव के सबके लिए समानरूप से
कल्याणकारिणी है।
विपश्यना (Vipassana) आत्मनिरीक्षण
द्वारा आत्मशुद्धि की अत्यंत पुरातन साधना-विधि है। जो
जैसा है, उसे ठीक वैसा ही देखना-समझना
विपश्यना है। लगभग 2500
वर्ष पूर्व भगवान गौतम बुद्ध ने विलुप्त हुई इस पद्धति का पुन: अनुसंधान कर इसे
सार्वजनीन रोग के सार्वजनीन इलाज, जीवन जीने की कला, के रूप में
सर्वसुलभ बनाया। जिवन जीने की कला इस सार्वजनीन
साधना-विधि का उद्देश्य विकारों का संपूर्ण निर्मूलन एवं
परमविमुक्ति की अवस्था को प्राप्त करना
है। इस साधना का उद्देश्य केवल शारीरिक रोगों को नहीं बल्कि मानव मात्र के सभी
दुखों को दूर करना है।
विपश्यना
आत्म-निरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की साधना है। अपने ही शरीर और
चित्तधारा पर पल-पल होने वाली
परिवर्तनशील घटनाओं को तटस्थ भाव से निरीक्षण करते हुए चित्तविशोधन का अभ्यास हमें
सुखशांति का जीवन जीने में मदद करता है। हम अपने भीतर शांति और सामंजस्य का अनुभव
कर सकते हैं।
हमारे
विचार, विकार, भावनाएं,
संवेदनाएं जिन वैज्ञानिक नियमों
के अनुसार चलते हैं, वे स्पष्ट होते हैं। अपने प्रत्यक्ष अनुभव से हम जानते हैं
कि कैसे विकार बनते हैं, कैसे बंधन बंधते हैं और कैसे इनसे छुटकारा
पाया जा सकता है। हम सजग, सचेत, संयमित एवं शांतिपूर्ण बनते हैं।
परंपरा
भगवान
बुद्ध के समय से निष्ठावान् आचार्यों की परंपरा ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी
इस ध्यान-विधि को अपने अक्षुण्ण रूप में बनाए रखा। इस परंपरा के वर्तमान आचार्य श्री सत्य नारायण
गोयन्काजी, है। वे भारतीय मूल के हैं लेकिन उनका जन्म म्यंमार (बर्मा) में
हुआ एवं उनके जीवन के पहले पैतालिस वर्ष म्यंमार में ही बीते। वहां उन्होंने प्रख्यात आचार्य सयाजी ऊ बा
खिन, जो की
एक वरिष्ठ सरकारी अफसर थे, से विपश्यना सीखी। अपने आचार्य के चरणों में
चौदह वर्ष विपश्यना का अभ्यास करने बाद सयाजी ऊ बा खिन ने उन्हें 1968 में लोगों
को विपश्यना सिखलाने के लिए अधिकृत किया। उसी वर्ष वे भारत आये और उन्होंने
विपश्यना के प्रचार-प्रसार का कार्य शुरू किया। तब से उन्होंने विभिन्न संप्रदाय एवं विभिन्न जाति के हजारों
लोगों को भारत में और भारत के बाहर पूर्वी एवं पश्र्चिमी देशों में विपश्यना का
प्रशिक्षण दिया है। विपश्यना शिविरों की बढ़ती मांग को देखकर 1982 में श्री गोयन्काजी ने सहायक आचार्य नियुक्त
करना शुरू किया।
विपश्यना क्या नहीं है:
·
विपश्यना
अंधश्रद्धा पर आधारित कर्मकांड नहीं है।
·
यह साधना
बौद्धिक मनोरंजन अथवा दार्शनिक वाद-विवाद के लिए नहीं है।
·
यह छुटी
मनाने के लिए अथवा सामाजिक आदान-प्रदान के लिए नहीं है।
·
यह रोजमर्रा
के जीवन के तनाव से पलायन की साधना नहीं है।
विपश्यना क्या है:
·
यह दुःख से मुक्ति
की साधना है।
·
यह मनको
निर्मल करने की ऐसी विधि है जिससे साधक जीवन के चढाव-उतारों का
सामना शांतपूर्ण एवं संतुलित
रहकर कर सकता है।
·
यह जीवन जीने
की कला है जिससे की साधक एक स्वस्थ समाज के निर्माण में मददगार होता है।
विपश्यना
साधना का उच्च आध्यात्मिक लक्ष्य विकारों से संपूर्ण मुक्ति है। उसका उद्देश्य
केवल शारीरिक व्याधियों का निर्मूलन नही है। लेकिन चित्तशुद्धि के कारण कई
सायकोसोमॅटीक बीमारियां दूर होती हैं । वस्तुत: विपश्यना दु:ख के तीन मूल कारणों को दूर करती है—राग, द्वेष एवं
अविद्या। यदि कोई इसका अभ्यास करता रहे तो कदम-कदम आगे
बढ़ता हुआ अपने मानस को विकारों से पूरी तरह मुक्त करके नितान्त विमुक्त अवस्था का
साक्षात्कार कर सकता है।
चाहे
विपश्यना बौद्ध परंपरा में सुरक्षित रही है, फिर भी इसमें कोई सांप्रदायिक तत्त्व नहीं है
और किसी भी पृष्ठभूमि वाला व्यक्ति इसे अपना सकता है और इसका उपयोग कर सकता है।
विपश्यना के शिविर ऐसे व्यक्ति के लिए खुले हैं,
जो ईमानदारी के साथ इस विधि को
सीखना चाहे। इसमें कुल, जाति, धर्म अथवा राष्ट्रीयता आड़े नहीं आती। हिन्दू, जैन, मुस्लिम, सिक्ख, बौद्ध, ईसाई, यहूदी तथा
अन्य सम्प्रदाय वालों ने बड़ी सफलतापूर्वक विपश्यना का अभ्यास किया है। चूंकि रोग
सार्वजनीन है, अत: इलाज भी सार्वजनीन ही होना चाहिए।
साधना एवं स्वयंशासन
आत्मनिरिक्षण
द्वारा आत्मशुद्धि की साधना आसान नहीं है—शिविरार्थियों को गंभीर अभ्यास करना पड़ता
है। अपने प्रयत्नों से स्वयं अनुभव द्वारा साधक अपनी प्रज्ञा जगाता है, कोई अन्य व्यक्ति
उसके लिए यह काम नहीं कर सकता। शिविर की अनुशासन-संहिता साधना
का ही अंग है।
विपश्यना
साधना सीखने के लिए १० दिन की अवधि वास्तव में बहुत कम है। साधना में एकांत अभ्यास
की निरंतरता बनाए रखना नितांत आवश्यक है। इसी बात को ध्यान में रख कर यह नियमावली
और समय-सारिणी बनाई गयी है। यह आचार्य या व्यवस्थापन
की सुविधा के लिए नहीं है। यह कोई परंपरा का अंधानुकरण अथवा कोई अंधश्रद्धा नहीं
है। इसके पीछे अनेक साधकों के अनुभवों का वैज्ञानिक आधार है। नियमावली का पालन साधना में बहुत लाभप्रद होगा।
शिविरार्थी
को पूरे ११ दिनों तक शिविर-स्थल पर ही रहना होगा। बीच में शिविर छोड़ कर
नहीं जा सकेंगे। इस अनुशासन-संहिता के अन्य सभी नियमों को भी ध्यानपूर्वक
पढ़े। अनुशासन-संहिता का पालन निष्ठा एवं गंभीरतापूर्वक कर सकते हों तभी शिविर में प्रवेश के लिए आवेदन करे।
आवेदक को समझना चाहिए कि शिविर के नियम कठिन पाने के कारण अगर वह शिविर छोडता है
तो उसके लिए वह हानिकारक होगा। यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण होगा कि बार बार समझाने पर
भी कोई साधक यदि नियमों का पालन नहीं करता है और इस कारण उसे शिविर से निकाला जाता
है।
मानसिक रोग से पीड़ित लोगों के लिए
कभी
कभी गंभीर मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्ति शिविर में इस आशा से आते हैं कि यह साधना
उनके रोग को दूर करेगी। कई गंभीर मानसिक बीमारियों के कारण शिविरार्थी साधना से
उचित लाभ पाने से वंचित रह जाते हैं अथवा शिविर पूरा करने में असमर्थ रहते हैं।
नॉन-प्रोफेशनल स्वयंसेवी संघटन होनीके वजहसे ऐसी पार्श्वभुमीके
व्यक्तीकी ठीक ढंग से देखभालके लिये असमर्थ है।विपश्यना साधना बहुतोंको लाभदायक है
तो भी यह साधना औषधोपचार या मानसोपचारके बदलेमे नही है। वैसेही गंभीर मानसिक बिमार व्यक्तिके लिये हम इस साधनाकी शिफारिस
नही करते।
शिविर
विपश्यना
दस-दिवसीय आवासी शिविरों में सिखायी जाती है। शिविरार्थियों को
अनुशासन संहिता, का पालन करना होता है एवं विधि को सीख कर
इतना अभ्यास करना होता है जिससे कि वे लाभान्वित हो सके।
शिविर
में गंभीरता से काम करना होता है। प्रशिक्षण के तीन सोपान होते हैं। पहला सोपान—साधक पांच
शील पालन करने का व्रत लेते हैं, अर्थात् जीव-हिंसा, चोरी, झूठ बोलना, अब्रह्मचर्य
तथा नशे-पते के सेवन से विरत रहना। इन शीलों का पालन
करने से मन इतना शांत हो जाता है कि आगे का काम करना सरल हो जाता है। अगला सोपान— नासिका से
आते-जाते हुए अपने नैसर्गिक सांस पर ध्यान केंद्रित कर आनापान
नाम की साधना का अभ्यास करना। चौथे दिन तक मन कुछ शांत होता है, एकाग्र होता
है एवं विपश्यना के अभ्यास के लायक होता है—अपनी काया के भीतर संवेदनाओं के प्रति सजग
रहना, उनके
सही स्वभाव को समझना एवं उनके प्रति समता रखना। शिविरार्थी दसवे दिन मंगल-मैत्री का
अभ्यास सीखते हैं एवं शिविर-काल में अर्जित पुण्य का भागीदार सभी
प्राणियों को बनाया जाता है।
यह
साधना मन का व्यायाम है। जैसे शारीरिक व्यायाम से शरीर को स्वस्थ बनाया जाता है
वैसे ही विपश्यना से मन को स्वस्थ बनाया जा सकता है।
साधना
विधि का सही लाभ मिलें इसलिए आवश्यक है कि साधना का प्रसार शुद्ध रूप में हो। यह
विधि व्यापारीकरण से सर्वथा दूर है एवं प्रशिक्षण देने वाले आचार्यों को इससे कोई
भी आर्थिक अथवा भौतिक लाभ नहीं मिलता है। शिविरों का संचालन स्वैच्छिक दान से होता
है। रहने एवं खाने का भी शुल्क किसी से नहीं लिया जाता। शिविरों का पूरा खर्च उन
साधकों के दान से चलता है जो पहिले किसी शिविर से लाभान्वित होकर दान देकर बाद में
आने वाले साधकों को लाभान्वित करना चाहते हैं।
निरंतर
अभ्यास से ही अच्छे परिणाम आते हैं। सारी समस्याओं का समाधान दस दिन में ही हो
जायेगा ऐसी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। दस दिन में साधना की रूपरेखा समझ में आती है
जिससे की विपश्यना जीवन में उतारने का काम शुरू हो सके। जितना जितना अभ्यास बढ़ेगा, उतना उतना
दुखों से छुटकारा मिलता चला जाएगा और उतना उतना साधक परममुक्ति के अंतिम लक्ष्य के
करीब चलता जायेगा। दस दिन में ही ऐसे अच्छे परिणाम जरूर आयेंगे जिससे जीवन में
प्रत्यक्ष लाभ मिलना शुरू हो जायेगा।
सभी
गंभीरतापूर्वक अनुशासन का पालन करने वाले लोगों का विपश्यना शिविर में स्वागत है, जिससे कि वे
स्वयं अनुभूति के आधार साधना को परख सके एवं उससे लाभान्वित हो। जो भी गंभीरता से
विपश्यना को अजमायेगा वह जीवन में सुख-शांति पाने के लिए एक प्रभावशाली तकनिक
प्राप्त कर लेगा।
विशेष शिविर एवं संसाधन
जेलों
में भी विपश्यना सिखाई जाती है। उद्योगपति एवं जेष्ठ सरकारी अफसरों के लिए दस
दिवसीय एक्जिक्यूटिव कोर्स का आयोजन कई केंद्रों पर किया जाता है।
अनुशासन संहिता
शील (sīla) साधना की नींव है। शील के आधार पर ही समाधि (samādhi) —मन की एकाग्रता—का अभ्यास
किया जा सकता है एवं प्रज्ञा (paññā) के अभ्यास से
विकारों का निर्मूलन के परिणाम-स्वरूप चित्त-शुद्धि होती
है।
शील
सभी
शिविरार्थियों को शिविर के दौरान पांच शीलों का पालन करना अनिवार्य है:
·
अहिंसा-
जीव-हत्या से विरत रहेंगे |
·
अस्तेय- चोरी
से विरत रहेंगे।
·
ब्रह्मचर्य-
मैथुन से विरत रहेंगे |
·
सत्य- असत्य-भाषण से विरत
रहेंगे।
·
नशे के सेवन
से विरत रहेंगे।
पुराने
साधक, अर्थात
ऐसे साधक जिन्होंने आचार्य गोयन्काजी या उनके सहायक आचार्यों के साथ पहले दस-दिवसीय शिविर
पूरा कर लिया है, अष्टशील का पालन करेंगे:
·
वे दोपहर-बाद (विकाल) भोजन
से विरत रहेंगे।
·
शृंगार-प्रसाधन एवं
मनोरंजन से विरत रहेंगे।
·
ऊंची आरामदेह
विलासी शय्या के प्रयोग से विरत रहेंगे।
·
पुराने साधक
सायं ५ बजे केवल नींबू की शिकंजी लेंगे, जबकि नए साधक दूध चाय, फल ले
सकेंगे। रोग आदि की विशिष्ट अवस्था में पुराने साधकों को फलाहार की छूट आचार्य की
अनुमति से ही दी जा सकेगी।
समर्पण
साधना-शिविर की
अवधि में साधक को अपने आचार्य के प्रति, विपश्यना विधि के प्रति तथा समग्र अनुशासन-संहिता के
प्रति पूर्णतया समर्पण करना होगा। समर्पित भाव होने पर ही निष्ठापूर्वक काम हो
पायेगा और सविवेक श्रद्धा का भाव जागेगा जो कि साधक की अपनी सुरक्षा और मार्गदर्शन हेतु नितांत आवश्यक है।
सांप्रदायिक कर्मकांड एवं अन्य साधना-विधियों का सम्मिश्रण
शिविर
की अवधि में साधक किसी अन्य प्रकार की साधना-विधि व पूजा-पाठ, धूप-दीप, माला-जप, भजन-कीर्तन, व्रत-उपवास आदि
कर्मकांडों के अभ्यास का अनुष्ठान न करें। इसका अर्थ और साधनाओं का एवं आध्यात्मिक विधियों का अवमुल्यन
नहीं है बल्कि विपश्यना को अजमाने के प्रयोग को न्याय दे सकें।
विपश्यना
के साथ जानबूझकर किसी और साधना विधि का सम्मिश्रण करना हानिप्रद हो सकता है। यदि
कोई संदेह हो या प्रश्न हो तो संचालक आचार्य से मिलकर समाधान कर लेना चाहिए।
आचार्य से मिलना
साधक
चाहे तो अपनी समस्याओं के लिए आचार्य से दोपहर १२ से १ के बीच अकेले में मिल सकता
है। रात्रि ९ से ९.३० बजे
तक साधना-कक्ष
में भी सार्वजनीन प्रश्नोत्तर का अवसर उपलब्ध होगा। ध्यान रहे कि सभी प्रश्न
विपश्यना विधि को स्पष्ट समझने के लिए ही हो।
आर्य मौन
·
शिविर आरंभ
होने से दसवे दिन सुबह लगभग दस बजे तक आर्य मौन अर्थात वाणी एवं शरीर से भी मौन का
पालन करेंगे। शारीरिक संकेतों से या लिख-पढ़कर विचार-विनिमय
करना भी वर्जित है।
·
अत्यंत
आवश्यक हो तो व्यवस्थापन से तथा विधि को समझने के लिए आचार्य से बोलने की छूट है।
पर ऐसे समय भी कम-से-कम जितना आवश्यक समझे उतना ही बोलें।
विपश्यना साधना व्यक्तिगत अभ्यास है। अत: हर एक साधक अपने आप को अकेला समझता हुआ एकांत
साधना में ही रत रहे।
·
पुरुष और
महिलाओं का पृथक -पृथक रहना
·
आवास, अभ्यास, अवकाश और
भोजन आदि के समय सभी पुरुषों और महिलाओं को अनिवार्यत: पृथक्-पृथक्
रहना होगा।
·
शिविर के
दौरान सभी समय साधक एक दूसरे को स्पर्श बिल्कुल नहीं करेंगे।
योगासन एवं व्यायाम
विपश्यना
साधना के साथ योगासन व अन्य शारीरिक व्यायाम का संयोग मान्य है, परन्तु
केंद्र में फिलहाल इनके लिए आवश्यक एकांत की सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। इसलिए
साधकों को चाहिए कि वे इनके स्थान पर अवकाश-काल में
निर्धारित स्थानों पर टहलने का ही व्यायाम करें।
मंत्राभिषिक्त माला-कंठी, गंडा-ताबीज आदि
साधक
उपरोक्त वस्तुएं अपने साथ न लाएं। यदि भूल से ले आए हों तो केंद्र पर प्रवेश करते
समय इन्हें दस दिन के लिए व्यवस्थापक को सौंप दें।
नशीली वस्तुएं, धूम्रपान,
जर्दा-तंबाकू व
दवाएं
देश
के कानून के अंतर्गत भांग, गांजा, चरस आदि सभी प्रकार की नशीली वस्तुएं रखना
अपराध है। केंद्र में इनका प्रवेश सर्वथा निषिद्ध है। रोगी साधक अपनी सभी दवाएं
साथ लाए एवं उनके बारे में आचार्य को बता दें।
तंबाकू-जर्दा,
धूम्रपान
केंद्र
की साधना स्थली में धूम्रपान करने अथवा जर्दा-तंबाकू खाने
की सख्त मनाही है।
भोजन
विभिन्न
समुदाय के लोगों को अपनी रुचि का भोजन उपलब्ध कराने में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयां
हैं। इसलिए साधकों से प्रार्थना है कि व्यवस्थापकों द्वारा जिस सादे, सात्विक, निरामिष भोजन
की व्यवस्था की जाय, उसी में समाधान पायें। यदि किसी रोगी साधक को चिकित्सक
द्वारा कोई विशेष पथ्य बतलाया गया हो तो वह आवेदन-पत्र एवं
शिविर में प्रवेश के समय इसकी सूचना व्यवस्थापक
को अवश्य दें, जिससे यथासंभव आवश्यक व्यवस्था की जा सके।
वेश-भूषा
शरीर
व वस्त्रों की स्वच्छता, वेश-भूषा में
सादगी एवं शिष्टाचार आवश्यक है। झीने कपड़े पहनना निषिद्ध है। महिलाएं कुर्ते के
साथ दुपट्टे का उपयोग अवश्य करें।
बाह्य संपर्क
शिविर
के पूरे काल में साधक अपने सारे बाह्य-संपर्क विच्छिन्न रखे। वह केंद्र के परिसर
में ही रहे। इस अवधि में किसी से टेलिफोन अथवा पत्र द्वारा भी संपर्क न करे। कोई
अतिथि आ जाय तो वह व्यवस्थापकों से ही संपर्क करेगा।
पढना, लिखना एवं संगीत
शिविर
के दरम्यान संगीत या गाना सुनना, कोई वाद्य बजाना मना है। शिविर में लिखना-पढ़ना मना
होने के कारण साथ कोई लिखने-पढ़ने का साहित्य न लाएं। शिविर के दौरान
धार्मिक एवं विपश्यना संबंधी पुस्तकें पढ़ना भी वर्जित है। ध्यान रहे विपश्यना
साधना पूर्णतया प्रायोगिक विधि है। लेखन-पठन से इसमें विघ्न ही होता है। अत: नोटस् भी
नहीं लिखें।
टेप रेकॉर्डर एवं कॅमेरा
आचार्य
के विशिष्ट अनुमति के बिना केंद्र पर इनका उपयोग सर्वथा वर्जित है।
शिविर का खर्च
विपश्यना
जैसी अनमोल साधना की शिक्षा पूर्णतया नि:शुल्क ही दी
जाती है। विपश्यना की विशुद्ध परंपरा के अनुसार शिविरों का खर्च इस साधना से लाभान्वित साधकों के कृतज्ञताभरे ऐच्छिक
दान से ही चलता है। जिन्होंने आचार्य गोयंकाजी अथवा उनके सहायक आचार्यों द्वारा
संचालित कमसे कम एक दस दिवसीय शिविर पूरा किया है,
केवल ऐसे साधकों से ही दान
स्वीकार्य है।
जिन्हें
इस विधि द्वारा सुख-शांति मिली है, वे इसी मंगल चेतना से दाने देते हैं कि बहुजन
के हित-सुख के लिए धर्म-सेवा का यह
कार्य चिरकाल तक चलता रहे और अनेकानेक लोगों को ऐसी ही सुख-शांति
मिलती रहे। केंद्र के लिए आमदनी का कोई अन्य स्रोत नहीं है। शिविर के आचार्य एवं
धर्म-सेवकों को कोई वेतन अथवा मानधन नहीं दिया जाता। वे अपना समय एवं सेवा का दान देते
हैं। इससे विपश्यना का प्रसार शुद्ध रूप से, व्यापारीकरण से दूर, होता है।
दान
चाहे छोटा हो या बड़ा, उसके पिछे केवल लोक-कल्याण की
चेतना होनी चाहिए। बहुजन के हित-सुख की मंगल चेतना जागे तो नाम, यश अथवा बदले
में अपने लिए विशिष्ट सुविधा पाने का उद्देश्य त्याग कर अपनी श्रद्धा व शक्ति के
अनुसार साधक दान दे सकते हैं।
अनुशासन
संहिता का उद्देश्य स्पष्ट करने के लिए कुछ बिंदु-
·
अन्य साधकों
को बाधा न हो इसका पूरा पूरा ख्याल रखें। अन्य साधकों की ओर से बाधा हो तो उसकी ओर
ध्यान न दें।
·
अगर उपरोक्त
नियमों में से किसी भी नियम के पीछे क्या कारण है यह कोई साधक न समझ पायें तो
उसे चाहिए कि वह आचार्य से मिल कर अपना संदेह दूर करें।
·
अनुशासन का
पालन निष्ठा एवं गंभीरतापूर्वक करने से ही साधना विधि ठिक से समझ पायेंगे एवं उससे
पर्याप्त लाभ प्राप्त कर पायेंगे। शिविर में पूरा जोर प्रत्यक्ष काम. पर है। इस
तरह गंभीरता बनाए रखे जैसे कि आप अकेले एकांत साधना कर रहे हैं। मन भीतर की ओर हो
एवं असुविधाओं की एवं बाधाओं की ओर ध्यान बिल्कुल न दें।
·
साधक की
विपश्यना में प्रगती उनके अपने सद्गुणों पर एवं इन पांच अंगों—परिश्रम, श्रद्धा, मन की सरलता, आरोग्य एवं
प्रज्ञा—पर निर्भर है।
·
उपरोक्त
जानकारी आपकी साधना में अधिक से अधिक सफलता प्रदान करे। शिविर-व्यवस्थापक
आपकी सेवा और सहयोग के लिए सदैव उपस्थित हैं एवं आप की सफलता एवं सुख-शांति
की मंगल कामना करते हैं।
समय-सारिणी
यह समय-सारिणी
अभ्यास की निरंतरता बनाए रखने के लिए बनाई गयी है।
प्रात:
|
||
4:00 बजे
|
जागरण
|
|
4:30 से 6:30 बजे
|
साधना—निवास
स्थान/ध्यानकक्ष/चैत्य
में
|
|
6:30 से 8:00 बजे
|
नाश्ता एवं विश्राम
|
|
09:00 से 10:00 बजे
|
सामूहिक साधना—ध्यानकक्ष
में
|
|
10:00 से 11:00 बजे
|
साधना—आचार्य के
निर्देशानुसार- निवास/ध्यानकक्ष/चैत्य
|
|
दोपहर
|
||
11:00 से 12:00 बजे
|
भोजन
|
|
12:00 से 1:00 बजे
|
विश्राम
|
|
अपराह्न
|
||
1:00 से 2:30 बजे
|
साधना—निवास
स्थान/ध्यानकक्ष/चैत्य
में
|
|
02:30 से 3:30 बजे
|
सामूहिक साधना—ध्यानकक्ष
में
|
|
03:30 से 5:00 बजे
|
साधना—आचार्य के
निर्देशानुसार- निवास/ध्यानकक्ष/चैत्य
|
|
05:00 से 06:00 बजे
|
दूध-चाय, फल
या नींबू की शिकंजी
|
|
सायं
|
||
06:00 से 07:00 बजे
|
सामूहिक साधना—ध्यानकक्ष
में
|
|
07:00 से 8:00 बजे
|
प्रवचन
|
|
रात्रि
|
||
08:00 से 09:00 बजे
|
सामूहिक साधना—ध्यानकक्ष
में
|
|
09:00 से 9:30 बजे
|
प्रश्नोत्तर—ध्यानकक्ष
में
|
|
09:30 बजे
|
अपने शयनकक्ष में आगमन, रोशनी बंद
व शयन
|
अधिक जानकारी के लिए https://www.dhamma.org/en/index का अवलोकन किया जा सकता है | विपश्यना साधना
की सम्पूर्ण प्रकिया-विधि आगामी आलेख में देखें |
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