बुधवार, 11 मार्च 2015
शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2014
स्त्री-शिक्षा
स्त्री-शिक्षा; स्त्री और शिक्षा को
अनिवार्य रूप से जोड़ने वाली अवधारणा है। इसका एक रूप शिक्षा में स्त्री को
पुरुषों की ही तरह शामिल करने से संबंधित है। दूसरे रूप में यह स्त्री के लिए बनाई
गई विशेष शिक्षा पद्धति को संदर्भित करता है। भारत में मध्य और पुनर्जागरण काल के
दौरान स्त्री को पुरुषों से अलग तरह की शिक्षा देने की धारणा
विकसित हुई थी। वर्तमान में यह बात सर्व मान्य है की स्त्री को भी उतना शिक्षित
होना चाहिये जितना पुरुष को। यह सिद्ध सत्य है कि यदि माता शिक्षित न होगी तो देश
की सन्तानों का कदापि कल्याण नहीं हो सकता।
भारत में
नारियों को हर दृष्टि से पूज्य शक्तिस्वरूपा माना जाता रहा है। इतिहास के कुछ
अंधकारमय कालखण्ड को छोड़कर सदा ही नारी के शिक्षा एवं संस्कार को
महत्व प्रदान किया गया।
ऐसा प्रतीत होता है
कि (Rigved) ऋग्वेद काल तथा उपनिषत्काल में नारीशिक्षा पूर्ण
विकास पर थी। उच्च शिक्षा के लिए पुरुषों की भाँति स्त्रियाँ भी शैक्षिक अनुशासन
के अनुसार ब्रह्यचर्य व्रत का पालन कर शिक्षा ग्रहण करतीं, तत्पश्चात
विवाह करती थीं। ईसा से 500 वर्ष पूर्व वैयाकरण पाणिनि ने नारियों के
द्वारा वेद अध्ययन की चर्चा की है। स्तोत्रों की रचना करनेवाली नारियों को
ब्रह्मवादिनी कहा गया है। इन में रोमशा, लोपामुद्रा, घोषा,
इंद्राणी आदि के नाम प्रसिद्ध हैं।
इस प्रकार पुस्तक-रचना, शास्त्रार्थ
तथा अध्यापनकार्य के द्वारा नारी उच्च शिक्षा का उपयोग करती थी।
शास्त्रार्थप्रवीणा गार्गी का नाम जगत्प्रसिद्ध है। पंतजलि ने जिस ""शाक्तिकी""
शब्द का प्रयोग किया है वह ""भाला धारण करनेवाली"" अर्थ का
बोधक है। इससे प्रतीत होता है कि नारियों को सैनिक शिक्षा भी दी जाती थी।
चंद्रगुप्त के दरबार में इस प्रकार की प्रशिक्षित नारियाँ रहती थीं।
प्राचीन काल में भी स्त्री पुरुष की शिक्षा में समानता के साथ विभिन्नता रहती थी।
नारियों को विशेष रूप से ललितकला, संगीत, नृत्य आदि की शिक्षा
दी जाती थी।
बौद्ध काल में संघ
में कुछ विदुषी नारियों का होना पाया जाता है। यद्यपि नारियों के लिए संघ के नियम
कठोर थे, फिर भी ज्ञान प्राप्ति के लिए अनेक नारियाँ संघ
की शरण में जाती थीं।
अवस्ता और पहलवी में
नारी के लिए समस्त गृहकार्यों की शिक्षा पर बल दिया है। पशुपालन, धार्मिक
रीतियों का पालन आदि की व्यवस्था थी| कुरान ने बिना किसी भेदभाव के स्त्री पुरुष
को ज्ञान-प्राप्ति का समानाधिकारी माना है। ईसाई धर्म आध्यात्मिक स्तर पर स्त्री
पुरुष को समान देखता था किंतु उच्च शिक्षा के लिए स्त्री को "नन
(भिक्षुणी)" का जीवन व्यतीत करना होता था।
मध्यकाल
इस्लाम सभ्यता के
बीच परदे की प्रथा के कारण नारी-शिक्षा भारत में लुप्तप्राय हो गई। केवल अपवाद रूप
से समृद्ध मुसलमान परिवार की महिलाएँ ही घर पर शिक्षा ग्रहण करती थीं। इन में नूरजहाँ,
जहाँआरा तथा ज़ेबुन्निसा के नाम प्रसिद्ध हैं। हिंदुओं में बाल-विवाह,
सती-प्रथा इत्यादि कारणों से बहुसंख्यक नारियाँ शिक्षा से वंचित रहीं।
19वीं शताब्दी
भारत में 19वीं शताब्दी में प्राय: सभी शैक्षिक संस्थाएँ जनता में नेतृत्व
करनेवाले व्यक्तियों द्वारा संचालित थीं। इनमें कुछ अँगरेज व्यक्ति भी थे। इस समय राजा
राममोहन राय ने बाल विवाह तथा सती-प्रथा को दूर करने का अथक परिश्रम किया। इन
कुप्रथाओं के दूर होने से नारीशिक्षा को प्रोत्साहन मिला। ईश्वरचंद्र विद्यासागर
ने बंगाल में कई स्कूल लड़कियों की शिक्षा के लिए खोले। सन् 1882 के
भारतीय शिक्षा आयोग (हंटर कमीशन) के अनुसार भारत सरकार की ओर से शिक्षिका
प्रशिक्षण का प्रबंध हुआ। आयोग ने नारी-शिक्षा के संबंध में अनेक
उत्साहवर्धक सुझाव प्रस्तुत किए किंतु धर्म-परिवर्तन का भय रहने के कारण सुझाव
अधिक कार्यान्वित न हो सके। 19वीं शताब्दी के अंत तक भारत
में कुल 12 कालेज, 467 स्कूल तथा 5628 प्राइमरी
स्कूल लड़कियों के लिए थे। संपूर्ण भारत में छात्राओं की संख्या 4,44,470 थी।
शताब्दी के अंत तक शनै: शनै: नारियाँ उच्च शिक्षा की ओर अग्रसर हो रही थीं किंतु
उनमें मुसलमान छात्राओं का अभाव था।
20वीं
शताब्दी
इसके प्रारंभिक
वर्षों में भारत में इस बात पर ध्यान दिया गया कि नारी-शिक्षा उनके समाजिक जीवन के
लिए उपयोगी होनी चाहिए क्योंकि उस समय तक जहाँ तक लिखने पढ़ने का संबंध था,
लड़कों और लड़कियों की शिक्षा
में कोई अंतर न था। उच्च शिक्षा की दृष्टि से सन् 1916 महत्वपूर्ण
है। इस समय दिल्ली में लेड़ी हार्डिग कालेज की स्थापना हुई तथा श्री डी.के. कर्वे ने भारतीय नारियों के लिए एक विश्वविद्यालय की
स्थापना की जिस में सब से अधिक धन बंबई प्रांत के एक व्यापारी से मिलने के कारण
उसकी माँ के नाम से विश्वविद्यालय का नाम श्रीमती नाथी बाई थैकरसी वीमेन्स
यूनिवर्सिटी हुआ। कर्वे जी ने इस बात का अनुभव किया कि नारी तथा पुरुष की शिक्षा
उनके आदर्शों के अनूकुल होनी चाहिए। इसी समय से मुसलमान नारियों ने भी उच्च शिक्षा
में पदार्पण किया। नारी की प्राविधिक शिक्षा में कला, कृषि, वाणिज्य
आदि का भी समावेश हुआ और नारी की उच्च शिक्षा में प्रगति हुई। धन के अभाव में
लड़कियों के लिए पृथक् कॉलेज तो अधिक न खुल सके किंतु राजनीतिक आंदोलनों में
सक्रिय रूप से भाग लेने से नारी सहशिक्षा की ओर अग्रसर हुई। सन् 1926 में
एक अखिल भारतीय नारी सम्मेलन के द्वारा यह निर्णीत हुआ कि लड़कियों के लिए एक ऐसा
विद्यालय खोला जाए जो पूर्ण रूप से भारतीय जीवन के आदर्शों के अनुकूल हो
तथा उसका समस्त प्रबंध स्त्रियाँ स्वयं करें। अत: दिल्ली
में ही लेडी इर्विन कालेज की स्थापना हुई जिसमें गृहविज्ञान तथा शिक्षिका
प्रशिक्षण पर अधिक ध्यान दिया गया। सन् 1946-47 में
प्राइमरी कक्षाओं से लेकर विश्वविद्यालय तक की कक्षाओं में अध्ययन करने वाली
छात्राओं की कुल संख्या 41, 56,
742 हो गई। इनमें प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण करनेवाली
छात्राएँ भी थीं। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् यद्यपि नारी शिक्षा में पहले की
अपेक्षा बहुत प्रगति हुई तथापि अन्य पाश्चात्य देशों की समानता वह न कर सकीं। इस
समय से नारी शिक्षा में संगीत एवं नृत्य की विशेष प्रगति हुई। सन् 1948-49 के विश्वविद्यालय शिक्षा
आयोग ने नारीशिक्षा के संबंध में मत प्रकट करते हुए कहा कि नारी विचार तथा
कार्यक्षेत्र में समानता प्रदर्शित कर चुकी है, अब उसे नारी आदर्शों
के अनुकूल पृथक रूप से शिक्षा पर विचार करना चाहिए। उच्च स्तर की शिक्षा में गृह विज्ञान,
गृह अर्थ शास्त्र, नर्सिंग तथा ललित कलाओं का प्रशिक्षण अवश्यक है।
इसके बाद आगे चलकर हाई स्कूल की कक्षाओं में गृहविज्ञान को अनिवार्य बना दिया गया
तथा पृथक रूप से भी अनेक कला केंद्र लड़कियों की शिक्षा के लिए खोले गए।
स्वतंत्रता के 10 वर्ष पश्चात् छात्राओं की कुल संख्या 87,67,912
हो गई तथा नारी का प्रवेश शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र में होने लगा। 19 मई सन् 1958
को नारी-शिक्षा की समस्याओं पर विचार करने के लिए एक राष्ट्रीय समिति
नियुक्त हुई जिसने इनकी समस्याओं पर बहुत गंभीरतापूर्वक विचार करने के पश्चात्
नारी के लिए उपयुक्त व्यवसायों की सूची सरकार के संमुख रखी है यद्यपि इन सभी व्यवसायों
में जाने योग्य वातावरण अभी नहीं बन सका है। उच्च शिक्षा पाने के पश्चात्
स्त्रियाँ अध्यापन, चिकित्सा कार्य (डाक्टरी)
अथवा कार्यालयों में ही अधिकतर काम करती हैं।
इंग्लैड, जर्मनी,
अमरीका जापान आदि पूँजीवादी राष्ट्रों में ही नहीं, वरन रूस,
रूमानिया, यूगोस्लाविया आदि साम्यवादी राष्ट्रों में भी
नारी-शिक्षा भारत की अपेक्षा बहुत आगे बढ़ गई है। यद्यपि 20वीं
शताब्दी के प्रारंभ में पाश्चात्य देशों में यह आशंका उत्पन्न हो गई थी कि
पुरुष की प्रतिस्पर्धा में नारी अपने विकास के क्षेत्र से हटकर पुरुषजीवन को अपना
रही है जो उसके लिए उपयुक्त नहीं है, किंतु अब ये राष्ट्र भी नारी की विशेष
शिक्षा पर ध्यान दे रहे हैं तथा शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में उपयुक्त योग्यता
प्राप्त कर वहाँ की नारी अपने सुशिक्षित राष्ट्रसमाज का निर्माण कर रही है।
मंगलवार, 12 अगस्त 2014
मूल्य-शिक्षा : अनिवार्य आवश्यकता
शिक्षा में
विज्ञान एवं मनोविज्ञान का प्रभाव अधिक होने के कारण शोधकर्ताओं को ऐतिहासिक एवं
दार्शनिक समस्याओं ने बहुत कम ध्यान आकर्षित किया है अथवा यह कहना भी अतिशयोक्ति
नहीं होगा कि सायास इन समस्याओं को मात्र नीरस एवं पुस्तकीय कहकर छोड़ दिया गया है
| यह दर्शन की गम्भीरता पर दृष्टिपात न करने का ही परिणाम है क्योंकि
प्रत्येक समस्या के समाधान का मूल दर्शन ही है |


सम्प्रति
प्रत्येक व्यक्ति स्वार्थांधता से ग्रसित है; अपने द्वारा किंचित्पि कार्य के लिए
वह अपेक्षाएँ संवर्धित करने लगता है |अपेक्षाओं की पूर्ति या कमोवेश अपेक्षाओं का
पूर्ण न होना मानसिक झंझावात उत्पन्न करता है | आज मानव के सीमातीत दुःख का कारण
स्वयं उसके द्वारा पोषित अपेक्षाएँ हैं | माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री,
गुरू-शिष्य एवं भाई-भतीजा आदि अन्य सम्बन्धों में अपेक्षाएँ बढ़ने से कटुता उत्पन्न
होती है तथा शनै:-शनै: उसकी परिणति विस्फोटक रूप धारण कर लेती है |
अस्तु,
संसारगत मानवीय मूल्यों का निरंतर ह्रास होता जा रहा है | हिंसा, व्यभिचार,
अहंकार, छल, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या, मद, मात्सर्य, आलस्य, प्रमाद, अधर्म, लोभ,
अन्याय, काम, क्रोध, आवेश, नास्तिकता, निन्दित कर्मानुष्ठान एवं क्रोधान्धता आदि
अवगुणों से संलग्न हुआ मानव पृथ्वी पर भार स्वरूप है, अत: विश्व-शान्ति एवं कल्याण
के लिए मूल्य-शिक्षा की आवश्यकता है | व्यक्ति में मानवीय मूल्यों के पुनर्स्थापन
एवं अकरणीय क्रियाओं के मार्गांतीकरण की आवश्यकता है |
आज का
शिक्षित मानव, मानव न रहकर मात्र प्राणी बनकर रह गया है, मानवीय गुणों की रिक्तता
एक प्रश्न बनकर उद्वेलित कर रही है, अत: आवश्यकता है कि शिक्षा-दर्शन भी कल्याणमयी
भावना से अभिभूत होकर संकीर्ण विचारों की सुदृढ़ परिधि को तोड़कर अपने में विस्तृत
स्वरूप को समाहित कर ब्रहमाण्ड के समान हो जाए | मानव क्षत-विक्षत मान्यताओं के
बंधन में न रहे और अपनी मृगतृष्णा को शांत कर शांति के मानसरोवर में डुबकियाँ
लगाने लगे |
दार्शनिक
समस्याओं पर जितने बी नवीन अनुसंधान हुए हैं, उनमें से अधिकांश व्यावहारिक पक्ष की
अपेक्षा पारमार्थिक पक्ष पर हुए हैं | कोई भी दर्शन केवल पारमार्थिक ज्ञान ही नहीं
देता बल्कि उसके प्रत्येक पहलु में विशेष व्यावहारिकता झलकती हुई स्पष्ट दृष्टिगत
होती है | अस्तु, यहाँ यह जिज्ञासा जाग्रत होना स्वाभाविक है कि कि तथ्यों को
अपनाकर अखिल मानवीय स्तर पर सुखी एवं सम्पन्न जीवन की मानवीय मूल्यानुसार शिक्षा
का आयोजन किया जा सकता है ?
आज मानव,
मानव के लिए विश्वबंधुत्व की भावना को तिरस्कृत कर कष्ट-साध्य बन चुका है| आतंकवाद
रूपी सुरसा के मुख में काल-कवलित होती मानव-जाति पाशविकता की चरमसीमा पर स्थित है
| सतत होतीं नृशंस हत्याएँ मानव-जाति के लिए अभिशाप हैं| मानवीय मूल्यों की कमी से
नृशंस हत्याएँ, व्यभिचार, अत्याचार, हिंसा, दुराचार, कुचक्र एवं घृणित राजनीति इत्यादि
के परिणाम हमारे सम्मुख हैं|
यह भौतिक प्रकृति (अपरा ) परमेश्वर की भिन्ना
शक्ति है, इसी प्रकार जीव भी परमेश्वर की ही शक्ति का रूप हैं किन्तु वे विलग नहीं
हैं, अपितु ईश्वर से नित्य सम्बन्धित हैं| इस तरह भगवान, जीव, प्रकृति, तथा काल;
ये सभी परस्पर सह-सम्बन्धित हैं और सभी शाश्वत हैं लेकिन कर्म शाश्वत नहीं हैं|
कर्म के फल अत्यंत पुरातन हो सकते हैं| हम अनादिकाल से शुभाशुभ कर्मफलों को भोग
रहे हैं, किन्तु साथ ही हम अपने कर्मों के फलों परिवर्तित भी कर सकते हैं और यह परिवर्तन
हमारे ज्ञान की पूर्णता पर निर्भर करता है|हम विविध प्रकार के कर्मों में व्यस्त
रहते हैं | निसंदेह हम यह नहीं जानते कि किस प्रकार के कर्म करने से हम कर्मफल से
मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं|
-डॉ. वी. के. पाठक
सोमवार, 20 जनवरी 2014
भारतीय संस्कृति एवं दर्शन
- डॉ. वी. के. पाठक
दुर्लभं
त्रयमेवैतद देवानुग्रह हेतुकम |
मनुष्यत्वं
मुमुक्षत्वं महापुरुष संश्रयं ||
भारतवर्ष, जहाँ ज्ञान का सूर्य मेघाच्छन्न
आकाश को चीरकर आलोकित हो उठा, अपनी प्राचीन, आध्यात्म प्रधान, सर्वसमन्वयकारी,
उदार एवं व्यापक संस्कृति, आदर्शयुक्त सभ्यता, साहित्य-वैशिष्ट्य, कला-कौशल,
ज्ञान-विज्ञान, एवं दार्शनिक तत्व-चिंतन की दृष्टि से विश्व का अग्रज रहा है |
अप्रवाहहीन पंकिल, सरोवर में नीलकमल की भांति, ज्ञान का उदय, प्रत्युष वेला में,
बाल रवि की भांति, प्रसार-विस्तार भारतवर्ष में ही हुआ, जिसने दूर-दूर तक जन मानष
के कल्मष को प्रक्षालित कर दिया | किसी भी देश की संस्कृति उस देश के संपूर्ण जीवन
की परिचायक होती है | यथा भारतीय संस्कृति के स्वरूप को प्रस्तुत करता निम्न
श्लोक-
सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामया |
सर्वे
भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत् ||
इस प्रकार समभाव रखते हुए भारतीय मनीषियों
ने जीवन के रहस्यों को खोज निकाला, जिससे वे परमार्थ के मानसरोवर में निमग्न
आनन्दानुभूति करने लगे | जीवन के झंझावातों से बचकर सत्य एवं असत्य, जड़ एवं चेतन
तथा दुःख तथा सुखादि तत्वों को समझने के लिए सृष्टि के आरम्भ से ही भारतीय मनीषी
अपनी समस्त शक्तियों को प्रयुक्त करते चले आ रहे हैं | जीवन में सरलता, अन्तःकरण
में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की उदात्त भावना, सत्य-प्रियता,जगत का मिथ्या होने का
ज्ञान, भक्ति व आत्म समर्पण, चिर सुख तथा परम आनंद की प्राप्ति के लिए उत्सुकता,
सामान्यतः प्रत्येक भारतीय के क्रिया-कलापों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से
दृष्टिगोचर होती है |

वर्तमान में उपयुक्त तथ्यों की अवहेलना ही दृष्टिगत
होती है, विश्व के प्रत्येक भाग में मानव सांसारिक सुख की प्राप्ति के लिए नाना
प्रकार के दुष्कर्मों की वैतरिणी में निमग्न है | आज पाश्चात्य देशों में
ज्ञान-विज्ञान की अत्यधिक उन्नति होने पर स्वार्थमूलक भावना के कारण उपलब्ध ज्ञान
शांति एवं संतोष के स्थान पर संघर्ष, प्रतियोगिता एवं विनाश का कारण बन रहा है |
मानव आधुनिकता के नाम पर स्वयं को भुलाकर तामसी एवं पाशविक प्रवृत्तियों से पूर्ण
असभ्यता एवं आत्मा-अवनति के गर्त में स्वयं को निक्षेपित करता चला आ रहा है | अतः
वर्तमान में ऐसे दार्शनिक चिंतन की आवश्यकता परिलक्षित होती है, जिसके माध्यम से
मानव पाशविक प्रवृत्तियों के घर्षण के पिष्टपेषण होने से बचकर आत्मानुभूति करके
व्यावहारिक दृष्टि से निस्वार्थ कार्य करने की प्रवृत्ति को अपनाकर जीवन के
पारमार्थिक लक्ष्य को प्राप्त कर सके |
रविवार, 19 जनवरी 2014
संयुक्त परिवार : एक आवश्यकता
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसीलिए उसे अपने विकास के
लिए समाज की आवश्यकता हुई | इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए
समाज की प्रथम इकाई के रूप में परिवार का उदय हुआ| क्योंकि
बिना परिवार के समाज की रचना के बारे में सोच पाना असंभव था | समुचित विकास के लिए प्रत्येक व्यक्ति को आर्थिक, शारीरिक, मानसिक सुरक्षा का वातावरण का
होना नितांत आवश्यक है| परिवार में रहते हुए परिजनों के
कार्यों का वितरण आसान हो जाता है| साथ ही भावी पीढ़ी को
सुरक्षित वातावरण एवं स्वास्थ्य, पालन-पोषण द्वारा मानव
का भविष्य भी सुरक्षित होता है | उसके विकास का मार्ग
प्रशस्त होता है | परिवार में रहते हुए ही भावी पीढ़ी को
उचित मार्ग निर्देशन देकर जीवन-संग्राम के लिए तैयार किया जा सकता है |
आज भी संयुक्त परिवार को ही सम्पूर्ण परिवार माना जाता
है | वर्तमान समय में भी एकल परिवार को
एक मजबूरी के रूप में ही देखा जाता है| हमारे देश
में आज भी एकल परिवार को मान्यता प्राप्त नहीं है| औद्योगिक
विकास के चलते संयुक्त परिवारों का बिखरना जारी है | परन्तु
आज भी संयुक्त परिवार का महत्त्व कम नहीं हुआ है| संयुक्त
परिवार के महत्त्व पर चर्चा करने से पूर्व एक नजर संयुक्त परिवार के बिखरने के
कारणों एवं उसके अस्तित्व पर मंडराते खतरे पर प्रकाश डालने का प्रयास करते हैं |
संयुक्त परिवारों के बिखरने का मुख्य कारण है रोजगार पाने की
आकांक्षा, बढ़ती जनसंख्या तथा घटते रोजगार के कारण
परिवार के सदस्यों को अपनी जीविका चलाने के लिए गाँव से शहर की ओर या छोटे शहर से
बड़े शहरों को जाना पड़ता है और इसी कड़ी में विदेश जाने की आवश्यकता पड़ती है|
परंपरागत कारोबार या खेती बाड़ी की अपनी सीमायें होती हैं जो
परिवार के बढ़ते सदस्यों के लिए सभी आवश्यकतायें जुटा पाने में समर्थ नहीं होता |
अतः परिवार को नए आर्थिक स्रोतों की तलाश करनी पड़ती है| जब अपने गाँव या शहर में नयी संभावनाएँ कम होने लगती हैं तो परिवार की
नयी पीढ़ी को रोजगार की तलाश में अन्यत्र जाना पड़ता है| अब
उन्हें जहाँ रोजगार उपलब्ध होता है वहीँ अपना परिवार बसाना होता है| क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं होता की वह नियमित रूप
से अपने परिवार के मूल स्थान पर जा पाए | कभी-कभी तो
सैंकड़ो किलोमीटर दूर जाकर रोजगार करना पड़ता है| संयुक्त
परिवार के टूटने का दूसरा महत्वपूर्ण कारण नित्य बढ़ता उपभोक्तावाद है| जिसने व्यक्ति को अधिक महत्वाकांक्षी बना दिया है | अधिक सुविधाएँ पाने की लालसा के कारण पारिवारिक सहनशक्ति समाप्त होती
जा रही है और स्वार्थ परता बढती जा रही है | अब वह अपनी
खुशियाँ परिवार या परिजनों में नहीं बल्कि अधिक सुख-साधन जुटा कर अपनी खुशियाँ
ढूंढ़ता है और संयुक्त परिवार के बिखरने का कारण बन रहा है | एकल परिवार में रहते हुए मानव भावनात्मक रूप से विकलांग होता जा रहा है
| जिम्मेदारियों का बोझ और बेपनाह तनाव सहन करना पड़ता है|
परन्तु दूसरी तरफ उसके सुविधा संपन्न और आत्मविश्वास बढ़ जाने के
कारण उसके भावी विकास का रास्ता खुलता है|
अनेक मजबूरियों के चलते हो रहे संयुक्त परिवारों के
बिखराव के वर्तमान दौर में भी संयुक्त परिवारों का महत्त्व कम नहीं हुआ है, बल्कि उसका महत्व आज भी बना हुआ है,
उसके महत्त्व को एकल परिवार में रह रहे लोग अधिक अच्छे से समझ
पाते हैं| उन्हें संयुक्त परिवार के लाभ दृष्टिगत होने
लगते हैं| क्योंकि किसी भी वस्तु का महत्त्व उसके अभाव को
झेलने वाले अधिक समझ सकते हैं | अब संयुक्त परिवारों के
लाभ पर बिन्दुबार बार चर्चा करते हैं-
विभिन्न कार्यों का विभाजन - परिवार में सदस्यों की
संख्या अधिक होने के कारण कार्यों का विभाजन आसान हो जाता है| प्रत्येक सदस्य के हिस्से में आने वाले कार्य को वह अधिक क्षमता से कर
पाता है और विभिन्न अन्य जिम्मेदारियों से भी मुक्त रहता है | अतः तनाव मुक्त हो कर कार्य करने में अधिक ख़ुशी मिलती है | उसकी कार्य-क्षमता अधिक होने से कारोबार अधिक उन्नत होता है | परिवार के सभी सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ती अपेक्षाकृत अधिक हो
सकती है और जीवन उल्लास पूर्ण व्यतीत होता है |
भावी पीढ़ी का समुचित विकास - संयुक्त परिवार में बच्चों के
लिए सर्वाधिक सुरक्षित और उचित शारीरिक एवं चारित्रिक विकास का अवसर प्राप्त होता
है | बच्चे की इच्छाओं और आवश्यकताओं का अधिक ध्यान रखा
जा सकता है | उसे अन्य बच्चों के साथ खेलने का मौका मिलता
है | माता-पिता के साथ-साथ अन्य परिजनों विशेष तौर पर
दादा-दादी का प्यार भी मिलता है, जबकि एकाकी परिवार में
कभी-कभी तो माता-पिता का प्यार भी कम ही मिल पाता है यदि दोनों ही कामकाजी हैं
दादा-दादी से प्यार के साथ ज्ञान तथा अनुभव भरपूर मिलता है | उनके साथ खेलने, समय बिताने से मनोरंजन
भी होता है| उन्हें संस्कारवान बनाना, चरित्रवान बनाना एवं हृस्ट-पुष्ट बनाने में अनेक परिजनों का सहयोग
प्राप्त होता है | एकाकी परिवार में संभव नहीं हो पाता है|
संयुक्त परिवार में रहकर कुल व्यय कम - बाजार का नियम है की यदि
कोई वस्तु अधिक परिमाण में खरीदी जाती है तो उसके लिए कम कीमत चुकानी पड़ती है |
अर्थात संयुक्त रहने के कारण कोई भी वस्तु अपेक्षाकृत अधिक मात्र
में खरीदनी होती है अतः बड़ी मात्र में वस्तुओं को खरीदना सस्ता पड़ता है| दूसरी बात अलग-अलग रहने से अनेक वस्तुएँ अलग-अलग खरीदनी पड़ती हैं जबकि
संयुक्त रहने पर कम वस्तु लेकर काम चल जाता है| उदाहरण के
तौर पर एक परिवार तीन एकल परिवारों के रूप में रहता है उन्हें तीन मकान, तीन कार या तीन स्कूटर, तीन टेलीविजन और
तीन फ्रिज, इत्यादि प्रत्येक वस्तु अलग-अलग खरीदनी
होगी | परन्तु वे यदि एक साथ रहते हैं उन्हें कम मात्रा
में वस्तुएं खरीद कार धन की बचत की जा सकती है | जैसे तीन
स्कूटर के स्थान पर एक कार, एक स्कूटर से काम चल
सकता है | तीन फ्रिज के स्थान पर एक बड़ा फ्रिज और एक A
.C लिया जा सकता है| इसी प्रकार
तीन मकानों के साथ पर एक पूर्णतया सुसज्जित बड़ा सा बंगला लिया जा सकता है|
टेलीफ़ोन, बिजली के अलग-अलग खर्च के
स्थान पर बचे धन से कार व A.C. मेंटेनेंस का
खर्च निकाल सकता है | इस प्रकार से उतने ही बजट में
अधिक
उच्च जीवन-शैली के साथ जीवन-यापन किया जा सकता है|
भावनात्मक सहयोग - किसी विपत्ति के समय परिवार के किसी भी सदस्य के गंभीर रूप से बीमार
होने पर पूरे परिवार के सहयोग से आसानी से पार पाया जा सकता है | जीवन के सभी कष्ट सब के सहयोग से बिना किसी को विचलित किये दूर हो जाते
हैं | कभी भी आर्थिक समस्या या रोजगार चले जाने की समस्या
उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि एक सदस्य की अनुपस्थिति में
अन्य परिजन कारोबार को देख लेते हैं|
चरित्र-निर्माण में सहयोग - संयुक्त परिवार में सभी
सदस्य एक दूसरे के आचार-व्यवहार पर निरंतर निगरानी बनाए रखते हैं, किसी की अवांछनीय गतिविधि पर अंकुश लगा रहता है | अर्थात प्रत्येक सदस्य चरित्रवान बना रहता है| किसी समस्या के समय सभी परिजन उसका साथ देते हैं और सामूहिक दबाव भी
पड़ता है कोई भी सदस्य असामाजिक कार्य नहीं कर पाता ,बुजुर्गों के भय के कारण शराब, जुआ या अन्य
कोई नशा जैसी बुराइयों से बचा रहता है
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है की संयुक्त परिवार की
अपनी गरिमा होती है, अपना
महत्त्व होता है|
गुरुवार, 26 दिसंबर 2013
सर्व यत्नेन पूज्यते
- डॉ. वी. के. पाठक
भारतीय संस्कृति का परिवेश अतीत काल से ही दूसरों के प्रति
आदर, सम्मान सेवा एवं सहयोग से परिनिष्ठित रहा है | ‘षोडश संस्कार’ मानव को जन्म
से मृत्यु-पर्यन्त कर्त्तव्यों के प्रति नीयत आचरण में आबद्ध कर देते हैं | माता
के गर्भ में आने से पूर्व ही बालक अनुशासित होने के लिए प्रेरित होता है | बालक
जन्म से ही माता-पिता पुनश्च अध्यापकों के आदर के प्रति समर्पित होता है | शुकसप्तति
में तत्सम्बन्धित एक निर्देशक श्लोक है, जिसमें ज्येष्ठ्जनों के आदर एवं सम्मान को
द्योतित किया गया है-
न पूजयन्ति ये पूज्यान मान्यान न मानयन्ति ये |
जीवन्ति निन्द्मानास्ते मृता: स्वर्गं न यान्ति च ||
-शुकसप्तति (१/५)
अर्थात् जो व्यक्ति अपने पूज्य जनों की पूजा नहीं करते
अर्थात् यथेष्ट आदर नहीं देते, जो अपने माननीयों को सम्मान नहीं करते, वे निन्दित
होते हुये जीते हैं और मरने के बाद स्वर्ग नहीं जाते | एतद् अनुरूप भारतीय
संस्कृति माता-पिता के आदर के प्रति सदैव से ही समर्पित रही है | माँ सभी तीर्थों
का एकात्मक रूप प्रस्तुत करती है एवं पिता सभी देवताओं का समन्वित रूप है, उनकी
पूजा (आदर) के लिए सतत रूप से सप्रयत्न सार्थक क्रियाओं का आयोजन होना चाहिए |
उक्त च-
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमय पिता |
मातरं पितरं तस्मात् सर्व यत्नेन पूज्यते ||
उन्मीलित ज्ञान-चक्षुओं का उद्घाटन करने वाले
माता-पिता एवं अध्यापक क्रमशः सम्मान एवं पूजन के अधिकारी होते हैं | हमारी भारतीय
संस्कृति सदैव से ही उनके उन्नायक एवं ज्वाज्ल्यमान रूप की थाती रही है |
श्वेताश्वेत्तर उपनिषद् का एक श्लोक ह्रदय, मन एवं मस्तिष्क में झंझावात उत्पन्न कर
देता है कि अंततः गुरूजन क्यों सदैव से ही शिरोमणि श्रेष्ठ रहे हैं ? परन्तु
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उनकी भूमिका का तत्कालीन संदर्भों से कम आकलन नहीं किया
जा सकता | उक्त च –
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः |
गुरोर्साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः ||
-श्वेताश्वेत्तर उपनिषद्
आज स्वार्थान्धतापूर्ण जीवन में माता-पिता व अध्यापकों के
आदर एवं सम्मान के मानकों में ह्रास दृष्टिगत होता है | अंततः क्यों ? इस प्रश्न
के संदर्भ में क्या हम सभी परस्पर दोषों का आरोहण-अवरोहण न कर विचार करें तो पायेंगे
कि हम सभी दोषी हैं | आज भौतिकवादी तथा उपभोक्तावादी युग में मानव से मानव की अंत:क्रिया
समाप्त हो गयी है, उसका स्थान अलगाव ने ले लिया है | संयुक्त परिवार की अवधारणा
काल्पनिक जगत का विचारणीय इतिहास बनकर कहीं सिमटा पड़ा है | निरंतर बढ़ती भौतिकवादिता,
विलासिता,उपभोक्ता प्रवृत्ति एवं परिणामत: समयाभाव परिजनों को एक मार्ग का ‘माईलस्टोन’
बनाकर खड़ा कर देता है, जिनमें कि कुछ सम्बन्ध तो है परन्तु वे स्नेह, प्रेम एवं
स्निग्ध वात्सल्य को प्रवाहित कर अभिव्यक्त नहीं कर सकते |
यदि श्रीमद्भगवद्गीता के संदर्भ में देखा
जाए तो गीता के गुण एवं कर्म सिद्धांतों के विपरीत जाने का ही यह परिणाम दृष्टिगत
होता है | मानव, मानव सत्वगुण से विरत रजस या तमस में लिप्त है | परिणामस्वरूप
उनकी तदनुरूप क्रियाएँ सदैव तामसिक या राजसी होती जा रहीं हैं | जो उन्हें भोगविलास,
भौतिकता एवं सुरसावत बढ़ती बुराइयों की और आकर्षित करतीं हैं | जो जन-जन में विभेद
करते हैं, अपितु सभी के साथ कुत्सित एवं अनाचार से युक्त व्यवहार ही चरित्र में
परिणत करते हैं | कर्म भी गुण आधारित है, वासनाओं, इच्छाओं एवं फलापेक्षाओं से
किया गया कार्य, उन्हें अध:पतन की और आकर्षित करता है | इससे वे माता-पिता या
अध्यापक आदि किसी के भी अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं | भारतीय संस्कृति के
प्रचारित एवं सम्पोषित मूल्यों का ह्रास इसका परिणाम है कि आज प्रत्येक मानवीय
मूल्यों के विरुद्ध एक पूर्वाग्रही तथा संकुचित सोच रखता है |
भारतीय सांस्कृतिक मूल्यानुरूप शिक्षा के
साथ-साथ माता-पिता एवं अध्यापकों का यह महनीय कर्तव्य है कि वे प्रस्फुटित होते
बालकों को पुष्पवत, एक माली के सामान पल्लवित एवं पोषित करें |“सत्कारो हि
नाम सत्कारेण प्रतीष्ट प्रीतिमुत्पाद्यति |” - स्वप्नवासवदत्ता
(भाष) अर्थात् सत्कार (सम्मान) से मिलकर सत्कार अधिक प्रेम उत्पन्न
करता है |
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