बुधवार, 27 नवंबर 2013

विश्व-शान्ति एवं समृद्धि तथा गीता का गुण-कर्म


                                   -डॉ. वी. के. पाठक  

ईश्वर की सृष्टि में न्यूनाधिक रूप से क्रियाओं का व्यापार होता रहता है, ये सभी क्रियाएँ विभिन्न प्रकार के परिणामों की जन्मदात्री होती हैं | सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ पर इनका प्रभाव पड़ता है, इससे विश्व अछूता नहीं रह सकता | शान्ति एवं समृद्धि के सन्दर्भ में मानव ही एक ऐसा प्राणी है, जो विश्व के लिए एक इकाई है | मानव ही सर्वगुण एवं अवगुणों से युक्त प्राणी है | इसके कार्य-व्यापार के प्रभाव से ही विश्व में शान्ति एवं समृद्धि प्रभावित होती है | विश्व-शान्ति एवं समृद्धि के लिए गीता के महत्वपूर्ण सिद्धांत (अ) गुण सिद्धांत (ब) निष्काम कर्म सिद्धांत हैं| श्रीमद्भगवद्गीता सम्प्रति विश्व-हितार्थ अपने सिद्धांतों से समरसता, शान्ति एवं समृद्धि स्थापित करने में सहायक है | आज आतंकवाद रूपी सुरसा के मुख में काल कवलित होती मानव जाति पाशविकता की चरमसीमा पर पहुँच चुकी है | सतत होती नृशंस हत्याएँ मानव जाति के लिए अभिशाप हैं | मानवीय मूल्यों की कमी से नृशंस हत्याएँ, व्यभिचार, हिंसा, दुराचार, कुटिल राजनीतिक षड्यंत्र, मानवीय गुणों को छोड़कर सभी अवगुणों ने मानव-शरीर को कुचक्र का स्थान बनाया है |



      प्रथमतः हम गीता के गुण सिद्धांत को उक्त सन्दर्भ में देखें तो प्रकृति से सत्व, रजस एवं तमस ये तीनों गुण उत्पन्न होते हैं | ये तीनों गुण अविनाशी देही को देह में रस्सीवत बाँधते हैं | वास्तव में देखा जाए तो ये तीनों गुण अपनी ओर से किसी को बंधन में नहीं रखते, प्रत्युत यह पुरुष ही इन गुणों के साथ बंधन स्वीकार कर लेता है| देही स्वयं अविनाशी रूप से यथावत् रहता हुआ भी गुणों की वृत्तियों के अधीन होकर स्वयं सात्विक, राजस तथा तामस बन जाता है | “सत्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृति संभवाः | निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम ||” (14/5) इसी सन्दर्भ में गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं- “ईश्वर अंशजीव अविनाशी | चेतन अमल सहज सुखरासी ||” इन तीनों गुणों का कार्य होने से सम्पूर्ण प्रकृति त्रिगुणात्मिका है, अतः शरीर, इन्द्रीयाँ, मन बुद्धि, प्राणी और पदार्थ आदि सब गुणमय ही हैं, यही ‘गुण विभाग’ कहलाता है | इन (शरीरादि) से होने वाली क्रिया ‘कर्म विभाग’ कहलाती है | (28/3) तीनों गुणों की वृत्तियाँ उत्पन्न एवं लीन होती रहती हैं | उनके साथ तादात्म्य स्थापित कर मनुष्य स्वयं को सात्विक, राजस एवं तामस मान लेता है अर्थात् उन गुणों का अपने में आरोप कर लेता है | (7/13) सत्वगुण सुख में, रजोगुण सकाम कर्म में तथा तमोगुण आलस्य में स्थिर कर ज्ञान को आच्छादित कर देता है | (14/9) इसी कारण मनुष्य असामाजिक क्रियाओं को करते हुए अशांति उत्पन्न करता है, शान्ति के अभाव में समृद्धि प्राप्त करना असम्भव है | परस्पर तीनों गुण एक-दूसरे गुण की वृत्तियों को दबाते हैं तथा अपनी वृद्धि करते हैं | (14/10) वर्तमान परिस्थितियों में तमोगुण की प्रधानता दृष्टिगत होती है, जो विश्व-शान्ति का चीर-हरण करने में संलग्न है | मनुष्य में जिस गुण की अधिकता होती है, तदनुरूप क्रियाओं का आयोजन करता है, सत्व उत्तम कर्मों में, रजस सकाम कर्मों में एवं तमस गुण गर्हित कर्मों में संलग्न करता है | (14/18) यही कारण है कि सम्प्रति प्रत्येक व्यक्ति स्वार्थान्धता से ग्रसित है | अपने द्वारा किन्चित्पि संपादित कार्य के लिये अपेक्षाएँ पोषित करने लगता है | अपेक्षाओं की पूर्ति या कमोवेश अपेक्षाओं का पूर्ण न होना मानसिक झंझावात उत्पन्न करता है | आज मानव के सीमातीत दुःख का कारण उसके द्वारा पोषित, पल्लवित एवं संबर्धित अपेक्षाएँ हैं | माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्रियाँ, गुरू-शिष्य एवं अन्य पारिवारिक जनों या सम्बन्धों में आरोपित अपेक्षाओं के बढ़ने से कटुता, हीनता, द्वेष, ईर्ष्या एवं प्रेम-अभाव स्थान ग्रहण कर लेता है तथा धीरे-धीरे उसकी परिणति विस्फोटक रूप धारण कर लेती है | अतः विश्व-शान्ति एवं समृद्धि के लिए आवश्यक है मानव में अंतर्निहित सत्व गुण को विकसित करने की |
             श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय सिद्धांत के रूप में “निष्काम-कर्म” के सिद्धांत को जाना जा सकता है | मनुष्य को ‘कर्म’ की अनिवार्यता के कारण कर्म करना अनिवार्य है | ऐसे में सकाम कर्म एवं निष्काम कर्म का स्व-विवेक से निर्धारण करना होता है | विश्व की शान्ति में सकाम कर्म जो किसी वासना, आकांक्षा, अभीप्सा और इच्छा पर अवलम्बित होते हैं, कुठाराघात करते हैं | इससे समरसता एवं सद्भावना का अभाव हो जाता है | आज आवश्यकता है ‘निष्काम कर्म’ की, जिससे कि बिना किसी अहंकार, ममता या आसक्ति के कर्म फलों के विचाराभाव में उचित कर्मों का पालन करना | समुदाय, समाज, देश एवं विश्व के लिए शान्ति एवं समृद्धि कारक होगा | अंततः यह कहना साभिप्राय होगा कि गीता के ‘गुण-कर्म सिद्धांत’ आधारित मार्ग पर चलकर मनुष्य संसार में प्रवृत्त होते हुए अपने परम् लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है |
                                                                                                      -डॉ. वी. के. पाठक