स्त्री-शिक्षा; स्त्री और शिक्षा को
अनिवार्य रूप से जोड़ने वाली अवधारणा है। इसका एक रूप शिक्षा में स्त्री को
पुरुषों की ही तरह शामिल करने से संबंधित है। दूसरे रूप में यह स्त्री के लिए बनाई
गई विशेष शिक्षा पद्धति को संदर्भित करता है। भारत में मध्य और पुनर्जागरण काल के
दौरान स्त्री को पुरुषों से अलग तरह की शिक्षा देने की धारणा
विकसित हुई थी। वर्तमान में यह बात सर्व मान्य है की स्त्री को भी उतना शिक्षित
होना चाहिये जितना पुरुष को। यह सिद्ध सत्य है कि यदि माता शिक्षित न होगी तो देश
की सन्तानों का कदापि कल्याण नहीं हो सकता।
भारत में
नारियों को हर दृष्टि से पूज्य शक्तिस्वरूपा माना जाता रहा है। इतिहास के कुछ
अंधकारमय कालखण्ड को छोड़कर सदा ही नारी के शिक्षा एवं संस्कार को
महत्व प्रदान किया गया।
ऐसा प्रतीत होता है
कि (Rigved) ऋग्वेद काल तथा उपनिषत्काल में नारीशिक्षा पूर्ण
विकास पर थी। उच्च शिक्षा के लिए पुरुषों की भाँति स्त्रियाँ भी शैक्षिक अनुशासन
के अनुसार ब्रह्यचर्य व्रत का पालन कर शिक्षा ग्रहण करतीं, तत्पश्चात
विवाह करती थीं। ईसा से 500 वर्ष पूर्व वैयाकरण पाणिनि ने नारियों के
द्वारा वेद अध्ययन की चर्चा की है। स्तोत्रों की रचना करनेवाली नारियों को
ब्रह्मवादिनी कहा गया है। इन में रोमशा, लोपामुद्रा, घोषा,
इंद्राणी आदि के नाम प्रसिद्ध हैं।
इस प्रकार पुस्तक-रचना, शास्त्रार्थ
तथा अध्यापनकार्य के द्वारा नारी उच्च शिक्षा का उपयोग करती थी।
शास्त्रार्थप्रवीणा गार्गी का नाम जगत्प्रसिद्ध है। पंतजलि ने जिस ""शाक्तिकी""
शब्द का प्रयोग किया है वह ""भाला धारण करनेवाली"" अर्थ का
बोधक है। इससे प्रतीत होता है कि नारियों को सैनिक शिक्षा भी दी जाती थी।
चंद्रगुप्त के दरबार में इस प्रकार की प्रशिक्षित नारियाँ रहती थीं।
प्राचीन काल में भी स्त्री पुरुष की शिक्षा में समानता के साथ विभिन्नता रहती थी।
नारियों को विशेष रूप से ललितकला, संगीत, नृत्य आदि की शिक्षा
दी जाती थी।
बौद्ध काल में संघ
में कुछ विदुषी नारियों का होना पाया जाता है। यद्यपि नारियों के लिए संघ के नियम
कठोर थे, फिर भी ज्ञान प्राप्ति के लिए अनेक नारियाँ संघ
की शरण में जाती थीं।
अवस्ता और पहलवी में
नारी के लिए समस्त गृहकार्यों की शिक्षा पर बल दिया है। पशुपालन, धार्मिक
रीतियों का पालन आदि की व्यवस्था थी| कुरान ने बिना किसी भेदभाव के स्त्री पुरुष
को ज्ञान-प्राप्ति का समानाधिकारी माना है। ईसाई धर्म आध्यात्मिक स्तर पर स्त्री
पुरुष को समान देखता था किंतु उच्च शिक्षा के लिए स्त्री को "नन
(भिक्षुणी)" का जीवन व्यतीत करना होता था।
मध्यकाल
इस्लाम सभ्यता के
बीच परदे की प्रथा के कारण नारी-शिक्षा भारत में लुप्तप्राय हो गई। केवल अपवाद रूप
से समृद्ध मुसलमान परिवार की महिलाएँ ही घर पर शिक्षा ग्रहण करती थीं। इन में नूरजहाँ,
जहाँआरा तथा ज़ेबुन्निसा के नाम प्रसिद्ध हैं। हिंदुओं में बाल-विवाह,
सती-प्रथा इत्यादि कारणों से बहुसंख्यक नारियाँ शिक्षा से वंचित रहीं।
19वीं शताब्दी
भारत में 19वीं शताब्दी में प्राय: सभी शैक्षिक संस्थाएँ जनता में नेतृत्व
करनेवाले व्यक्तियों द्वारा संचालित थीं। इनमें कुछ अँगरेज व्यक्ति भी थे। इस समय राजा
राममोहन राय ने बाल विवाह तथा सती-प्रथा को दूर करने का अथक परिश्रम किया। इन
कुप्रथाओं के दूर होने से नारीशिक्षा को प्रोत्साहन मिला। ईश्वरचंद्र विद्यासागर
ने बंगाल में कई स्कूल लड़कियों की शिक्षा के लिए खोले। सन् 1882 के
भारतीय शिक्षा आयोग (हंटर कमीशन) के अनुसार भारत सरकार की ओर से शिक्षिका
प्रशिक्षण का प्रबंध हुआ। आयोग ने नारी-शिक्षा के संबंध में अनेक
उत्साहवर्धक सुझाव प्रस्तुत किए किंतु धर्म-परिवर्तन का भय रहने के कारण सुझाव
अधिक कार्यान्वित न हो सके। 19वीं शताब्दी के अंत तक भारत
में कुल 12 कालेज, 467 स्कूल तथा 5628 प्राइमरी
स्कूल लड़कियों के लिए थे। संपूर्ण भारत में छात्राओं की संख्या 4,44,470 थी।
शताब्दी के अंत तक शनै: शनै: नारियाँ उच्च शिक्षा की ओर अग्रसर हो रही थीं किंतु
उनमें मुसलमान छात्राओं का अभाव था।
20वीं
शताब्दी
इसके प्रारंभिक
वर्षों में भारत में इस बात पर ध्यान दिया गया कि नारी-शिक्षा उनके समाजिक जीवन के
लिए उपयोगी होनी चाहिए क्योंकि उस समय तक जहाँ तक लिखने पढ़ने का संबंध था,
लड़कों और लड़कियों की शिक्षा
में कोई अंतर न था। उच्च शिक्षा की दृष्टि से सन् 1916 महत्वपूर्ण
है। इस समय दिल्ली में लेड़ी हार्डिग कालेज की स्थापना हुई तथा श्री डी.के. कर्वे ने भारतीय नारियों के लिए एक विश्वविद्यालय की
स्थापना की जिस में सब से अधिक धन बंबई प्रांत के एक व्यापारी से मिलने के कारण
उसकी माँ के नाम से विश्वविद्यालय का नाम श्रीमती नाथी बाई थैकरसी वीमेन्स
यूनिवर्सिटी हुआ। कर्वे जी ने इस बात का अनुभव किया कि नारी तथा पुरुष की शिक्षा
उनके आदर्शों के अनूकुल होनी चाहिए। इसी समय से मुसलमान नारियों ने भी उच्च शिक्षा
में पदार्पण किया। नारी की प्राविधिक शिक्षा में कला, कृषि, वाणिज्य
आदि का भी समावेश हुआ और नारी की उच्च शिक्षा में प्रगति हुई। धन के अभाव में
लड़कियों के लिए पृथक् कॉलेज तो अधिक न खुल सके किंतु राजनीतिक आंदोलनों में
सक्रिय रूप से भाग लेने से नारी सहशिक्षा की ओर अग्रसर हुई। सन् 1926 में
एक अखिल भारतीय नारी सम्मेलन के द्वारा यह निर्णीत हुआ कि लड़कियों के लिए एक ऐसा
विद्यालय खोला जाए जो पूर्ण रूप से भारतीय जीवन के आदर्शों के अनुकूल हो
तथा उसका समस्त प्रबंध स्त्रियाँ स्वयं करें। अत: दिल्ली
में ही लेडी इर्विन कालेज की स्थापना हुई जिसमें गृहविज्ञान तथा शिक्षिका
प्रशिक्षण पर अधिक ध्यान दिया गया। सन् 1946-47 में
प्राइमरी कक्षाओं से लेकर विश्वविद्यालय तक की कक्षाओं में अध्ययन करने वाली
छात्राओं की कुल संख्या 41, 56,
742 हो गई। इनमें प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण करनेवाली
छात्राएँ भी थीं। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् यद्यपि नारी शिक्षा में पहले की
अपेक्षा बहुत प्रगति हुई तथापि अन्य पाश्चात्य देशों की समानता वह न कर सकीं। इस
समय से नारी शिक्षा में संगीत एवं नृत्य की विशेष प्रगति हुई। सन् 1948-49 के विश्वविद्यालय शिक्षा
आयोग ने नारीशिक्षा के संबंध में मत प्रकट करते हुए कहा कि नारी विचार तथा
कार्यक्षेत्र में समानता प्रदर्शित कर चुकी है, अब उसे नारी आदर्शों
के अनुकूल पृथक रूप से शिक्षा पर विचार करना चाहिए। उच्च स्तर की शिक्षा में गृह विज्ञान,
गृह अर्थ शास्त्र, नर्सिंग तथा ललित कलाओं का प्रशिक्षण अवश्यक है।
इसके बाद आगे चलकर हाई स्कूल की कक्षाओं में गृहविज्ञान को अनिवार्य बना दिया गया
तथा पृथक रूप से भी अनेक कला केंद्र लड़कियों की शिक्षा के लिए खोले गए।
स्वतंत्रता के 10 वर्ष पश्चात् छात्राओं की कुल संख्या 87,67,912
हो गई तथा नारी का प्रवेश शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र में होने लगा। 19 मई सन् 1958
को नारी-शिक्षा की समस्याओं पर विचार करने के लिए एक राष्ट्रीय समिति
नियुक्त हुई जिसने इनकी समस्याओं पर बहुत गंभीरतापूर्वक विचार करने के पश्चात्
नारी के लिए उपयुक्त व्यवसायों की सूची सरकार के संमुख रखी है यद्यपि इन सभी व्यवसायों
में जाने योग्य वातावरण अभी नहीं बन सका है। उच्च शिक्षा पाने के पश्चात्
स्त्रियाँ अध्यापन, चिकित्सा कार्य (डाक्टरी)
अथवा कार्यालयों में ही अधिकतर काम करती हैं।
इंग्लैड, जर्मनी,
अमरीका जापान आदि पूँजीवादी राष्ट्रों में ही नहीं, वरन रूस,
रूमानिया, यूगोस्लाविया आदि साम्यवादी राष्ट्रों में भी
नारी-शिक्षा भारत की अपेक्षा बहुत आगे बढ़ गई है। यद्यपि 20वीं
शताब्दी के प्रारंभ में पाश्चात्य देशों में यह आशंका उत्पन्न हो गई थी कि
पुरुष की प्रतिस्पर्धा में नारी अपने विकास के क्षेत्र से हटकर पुरुषजीवन को अपना
रही है जो उसके लिए उपयुक्त नहीं है, किंतु अब ये राष्ट्र भी नारी की विशेष
शिक्षा पर ध्यान दे रहे हैं तथा शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में उपयुक्त योग्यता
प्राप्त कर वहाँ की नारी अपने सुशिक्षित राष्ट्रसमाज का निर्माण कर रही है।