काव्य-कर्म

पथ पर चलते एक जन को देखा

पथ पर चलते एक जन को देखा
जिज्ञासु उस हिय को देखा
प्रवाहहीन मुरझाये स्वर-सा
संत्रासित बिन नीर निर्झर का |
पथ पर चलते एक जन को देखा.....
श्लाघनीय उन पद सुमनों को
दृश्य देख हुआ मन हर्षित-सा
पथ पर चलते एक जन को देखा.....
सहसा
सुरसावत् देख तम का आगार
प्रतिपल श्वासोच्छवास बढ़े अवसाद
संपीडित कर नव निर्मित स्वर
शारदे सुत का नव प्रसाद
पथ पर चलते एक जन को देखा.....
संवाहक वह ज्ञान-निर्झर का |
लक्ष्य-भेद नव-निर्झर आया
विलुप्त हुआ तम सर्व जन उर का
सतत ईप्सित फल कामना यही है
गुरूर्ब्रह्मा वाक्य हो जग का |
नमन करूँ, शत-शत प्रणाम ||
पथ पर चलते एक जन को देखा.....

-डॉ.वी.के.पाठक
(शिक्षक दिवस की पूर्व संध्या पर)






मैं एक शिक्षक हूँ !

मैं एक शिक्षक हूँ !
मैं राष्ट्र विधाता हूँ!
राजनीति एवं राजनीतिज्ञों से परे
सामाजिक प्रगाढ़ता को बढा रहा हूँ
भावी कर्णधारों के निर्माण कारखाने में
यंत्रवत अग्रसर हो रहा हूँ
संप्रति.............
अपने नीड़ में
स्नेह-प्राप्ति को आतुर |
अज्ञानांधकार का तिरस्कार करने वाला
मैं स्वयं तिमिर मैं विलीन हो रहा हूँ !
मैं एक शिक्षक हूँ !
संप्रति एकलव्यों का सृजन करना होगा,
वही मेरा एकांतिक कृत–संकल्प लक्ष्य होगा|
किंकर्तव्यविमूढ़ जनों के लिये
मुझे सन्मार्ग खोजना होगा
छिद्रान्वेषियों  का मान-मर्दन तत्क्षण करना होगा
तब कहीं
मुझे नवोदित धनुर्धारी अर्जुन मिलेंगे
सहस्त्रबाहु-सम अज्ञानांधकार का
पटाक्षेप करना होगा|
तब मुझे .....
सद्य-प्रसूत रस-प्लावित फल प्राप्त होगा
सृजनात्मकता का मूल्य यही होगा|
क्योंकि मैं एक शिक्षक हूँ !

-    डॉ. वी. के. पाठक
(साभार: प्रेरणा,2009 से पुनर्प्रकाशित)

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