आलेख

मूल्य-शिक्षा : अनिवार्य आवश्यकता

शिक्षा में विज्ञान एवं मनोविज्ञान का प्रभाव अधिक होने के कारण शोधकर्ताओं को ऐतिहासिक एवं दार्शनिक समस्याओं ने बहुत कम ध्यान आकर्षित किया है अथवा यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सायास इन समस्याओं को मात्र नीरस एवं पुस्तकीय कहकर छोड़ दिया गया है | यह दर्शन की गम्भीरता पर दृष्टिपात न करने का ही परिणाम है क्योंकि प्रत्येक समस्या के समाधान का मूल दर्शन ही है |
सम्प्रति प्रत्येक व्यक्ति स्वार्थांधता से ग्रसित है; अपने द्वारा किंचित्पि कार्य के लिए वह अपेक्षाएँ संवर्धित करने लगता है |अपेक्षाओं की पूर्ति या कमोवेश अपेक्षाओं का पूर्ण न होना मानसिक झंझावात उत्पन्न करता है | आज मानव के सीमातीत दुःख का कारण स्वयं उसके द्वारा पोषित अपेक्षाएँ हैं | माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री, गुरू-शिष्य एवं भाई-भतीजा आदि अन्य सम्बन्धों में अपेक्षाएँ बढ़ने से कटुता उत्पन्न होती है तथा शनै:-शनै: उसकी परिणति विस्फोटक रूप धारण कर लेती है |
अस्तु, संसारगत मानवीय मूल्यों का निरंतर ह्रास होता जा रहा है | हिंसा, व्यभिचार, अहंकार, छल, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या, मद, मात्सर्य, आलस्य, प्रमाद, अधर्म, लोभ, अन्याय, काम, क्रोध, आवेश, नास्तिकता, निन्दित कर्मानुष्ठान एवं क्रोधान्धता आदि अवगुणों से संलग्न हुआ मानव पृथ्वी पर भार स्वरूप है, अत: विश्व-शान्ति एवं कल्याण के लिए मूल्य-शिक्षा की आवश्यकता है | व्यक्ति में मानवीय मूल्यों के पुनर्स्थापन एवं अकरणीय क्रियाओं के मार्गांतीकरण की आवश्यकता है |
आज का शिक्षित मानव, मानव न रहकर मात्र प्राणी बनकर रह गया है, मानवीय गुणों की रिक्तता एक प्रश्न बनकर उद्वेलित कर रही है, अत: आवश्यकता है कि शिक्षा-दर्शन भी कल्याणमयी भावना से अभिभूत होकर संकीर्ण विचारों की सुदृढ़ परिधि को तोड़कर अपने में विस्तृत स्वरूप को समाहित कर ब्रहमाण्ड के समान हो जाए | मानव क्षत-विक्षत मान्यताओं के बंधन में न रहे और अपनी मृगतृष्णा को शांत कर शांति के मानसरोवर में डुबकियाँ लगाने लगे |     
दार्शनिक समस्याओं पर जितने बी नवीन अनुसंधान हुए हैं, उनमें से अधिकांश व्यावहारिक पक्ष की अपेक्षा पारमार्थिक पक्ष पर हुए हैं | कोई भी दर्शन केवल पारमार्थिक ज्ञान ही नहीं देता बल्कि उसके प्रत्येक पहलु में विशेष व्यावहारिकता झलकती हुई स्पष्ट दृष्टिगत होती है | अस्तु, यहाँ यह जिज्ञासा जाग्रत होना स्वाभाविक है कि कि तथ्यों को अपनाकर अखिल मानवीय स्तर पर सुखी एवं सम्पन्न जीवन की मानवीय मूल्यानुसार शिक्षा का आयोजन किया जा सकता है ?
आज मानव, मानव के लिए विश्वबंधुत्व की भावना को तिरस्कृत कर कष्ट-साध्य बन चुका है| आतंकवाद रूपी सुरसा के मुख में काल-कवलित होती मानव-जाति पाशविकता की चरमसीमा पर स्थित है | सतत होतीं नृशंस हत्याएँ मानव-जाति के लिए अभिशाप हैं| मानवीय मूल्यों की कमी से नृशंस हत्याएँ, व्यभिचार, अत्याचार, हिंसा, दुराचार, कुचक्र एवं घृणित राजनीति इत्यादि के परिणाम हमारे सम्मुख हैं|

 यह भौतिक प्रकृति (अपरा ) परमेश्वर की भिन्ना शक्ति है, इसी प्रकार जीव भी परमेश्वर की ही शक्ति का रूप हैं किन्तु वे विलग नहीं हैं, अपितु ईश्वर से नित्य सम्बन्धित हैं| इस तरह भगवान, जीव, प्रकृति, तथा काल; ये सभी परस्पर सह-सम्बन्धित हैं और सभी शाश्वत हैं लेकिन कर्म शाश्वत नहीं हैं| कर्म के फल अत्यंत पुरातन हो सकते हैं| हम अनादिकाल से शुभाशुभ कर्मफलों को भोग रहे हैं, किन्तु साथ ही हम अपने कर्मों के फलों परिवर्तित भी कर सकते हैं और यह परिवर्तन हमारे ज्ञान की पूर्णता पर निर्भर करता है|हम विविध प्रकार के कर्मों में व्यस्त रहते हैं | निसंदेह हम यह नहीं जानते कि किस प्रकार के कर्म करने से हम कर्मफल से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं|  

सर्व यत्नेन पूज्यते

भारतीय संस्कृति का परिवेश अतीत काल से ही दूसरों के प्रति आदर, सम्मान सेवा एवं सहयोग से परिनिष्ठित रहा है | ‘षोडश संस्कार’ मानव को जन्म से मृत्यु-पर्यन्त कर्त्तव्यों के प्रति नीयत आचरण में आबद्ध कर देते हैं | माता के गर्भ में आने से पूर्व ही बालक अनुशासित होने के लिए प्रेरित होता है | बालक जन्म से ही माता-पिता पुनश्च अध्यापकों के आदर के प्रति समर्पित होता है | शुकसप्तति में तत्सम्बन्धित एक निर्देशक श्लोक है, जिसमें ज्येष्ठ्जनों के आदर एवं सम्मान को द्योतित किया गया है-
न पूजयन्ति ये पूज्यान मान्यान न मानयन्ति ये |
जीवन्ति  निन्द्मानास्ते मृता:  स्वर्गं न यान्ति च ||
-शुकसप्तति (१/५)
अर्थात् जो व्यक्ति अपने पूज्य जनों की पूजा नहीं करते अर्थात् यथेष्ट आदर नहीं देते, जो अपने माननीयों को सम्मान नहीं करते, वे निन्दित होते हुये जीते हैं और मरने के बाद स्वर्ग नहीं जाते | एतद् अनुरूप भारतीय संस्कृति माता-पिता के आदर के प्रति सदैव से ही समर्पित रही है | माँ सभी तीर्थों का एकात्मक रूप प्रस्तुत करती है एवं पिता सभी देवताओं का समन्वित रूप है, उनकी पूजा (आदर) के लिए सतत रूप से सप्रयत्न सार्थक क्रियाओं का आयोजन होना चाहिए | उक्त च-
सर्वतीर्थमयी   माता सर्वदेवमय   पिता |
मातरं पितरं तस्मात् सर्व यत्नेन पूज्यते ||
उन्मीलित ज्ञान-चक्षुओं का उद्घाटन करने वाले माता-पिता एवं अध्यापक क्रमशः सम्मान एवं पूजन के अधिकारी होते हैं | हमारी भारतीय संस्कृति सदैव से ही उनके उन्नायक एवं ज्वाज्ल्यमान रूप की थाती रही है | श्वेताश्वेत्तर उपनिषद् का एक श्लोक ह्रदय, मन एवं मस्तिष्क में झंझावात उत्पन्न कर देता है कि अंततः गुरूजन क्यों सदैव से ही शिरोमणि श्रेष्ठ रहे हैं ? परन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उनकी भूमिका का तत्कालीन संदर्भों से कम आकलन नहीं किया जा सकता | उक्त च –
गुरूर्ब्रह्मा  गुरूर्विष्णुः  गुरूर्देवो  महेश्वरः |
गुरोर्साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः ||
-श्वेताश्वेत्तर उपनिषद्
आज स्वार्थान्धतापूर्ण जीवन में माता-पिता व अध्यापकों के आदर एवं सम्मान के मानकों में ह्रास दृष्टिगत होता है | अंततः क्यों ? इस प्रश्न के संदर्भ में क्या हम सभी परस्पर दोषों का आरोहण-अवरोहण न कर विचार करें तो पायेंगे कि हम सभी दोषी हैं | आज भौतिकवादी तथा उपभोक्तावादी युग में मानव से मानव की अंत:क्रिया समाप्त हो गयी है, उसका स्थान अलगाव ने ले लिया है | संयुक्त परिवार की अवधारणा काल्पनिक जगत का विचारणीय इतिहास बनकर कहीं सिमटा पड़ा है | निरंतर बढ़ती भौतिकवादिता, विलासिता,उपभोक्ता प्रवृत्ति एवं परिणामत: समयाभाव परिजनों को एक मार्ग का ‘माईलस्टोन’ बनाकर खड़ा कर देता है, जिनमें कि कुछ सम्बन्ध तो है परन्तु वे स्नेह, प्रेम एवं स्निग्ध वात्सल्य को प्रवाहित कर अभिव्यक्त नहीं कर सकते |
     
यदि श्रीमद्भगवद्गीता के संदर्भ में देखा जाए तो गीता के गुण एवं कर्म सिद्धांतों के विपरीत जाने का ही यह परिणाम दृष्टिगत होता है | मानव, मानव सत्वगुण से विरत रजस या तमस में लिप्त है | परिणामस्वरूप उनकी तदनुरूप क्रियाएँ सदैव तामसिक या राजसी होती जा रहीं हैं | जो उन्हें भोगविलास, भौतिकता एवं सुरसावत बढ़ती बुराइयों की और आकर्षित करतीं हैं | जो जन-जन में विभेद करते हैं, अपितु सभी के साथ कुत्सित एवं अनाचार से युक्त व्यवहार ही चरित्र में परिणत करते हैं | कर्म भी गुण आधारित है, वासनाओं, इच्छाओं एवं फलापेक्षाओं से किया गया कार्य, उन्हें अध:पतन की और आकर्षित करता है | इससे वे माता-पिता या अध्यापक आदि किसी के भी अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं | भारतीय संस्कृति के प्रचारित एवं सम्पोषित मूल्यों का ह्रास इसका परिणाम है कि आज प्रत्येक मानवीय मूल्यों के विरुद्ध एक पूर्वाग्रही तथा संकुचित सोच रखता है |
      भारतीय सांस्कृतिक मूल्यानुरूप शिक्षा के साथ-साथ माता-पिता एवं अध्यापकों का यह महनीय कर्तव्य है कि वे प्रस्फुटित होते बालकों को पुष्पवत, एक माली के सामान पल्लवित एवं पोषित करें |सत्कारो हि नाम सत्कारेण प्रतीष्ट प्रीतिमुत्पाद्यति |” - स्वप्नवासवदत्ता (भाष) अर्थात् सत्कार (सम्मान) से मिलकर सत्कार अधिक प्रेम उत्पन्न करता है |
-डॉ. वी. के. पाठक   


  

विश्व-शान्ति एवं समृद्धि तथा गीता का गुण-कर्म
-डॉ. वी. के. पाठक  

ईश्वर की सृष्टि में न्यूनाधिक रूप से क्रियाओं का व्यापार होता रहता है, ये सभी क्रियाएँ विभिन्न प्रकार के परिणामों की जन्मदात्री होती हैं | सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ पर इनका प्रभाव पड़ता है, इससे विश्व अछूता नहीं रह सकता | शान्ति एवं समृद्धि के सन्दर्भ में मानव ही एक ऐसा प्राणी है, जो विश्व के लिए एक इकाई है | मानव ही सर्वगुण एवं अवगुणों से युक्त प्राणी है | इसके कार्य-व्यापार के प्रभाव से ही विश्व में शान्ति एवं समृद्धि प्रभावित होती है | विश्व-शान्ति एवं समृद्धि के लिए गीता के महत्वपूर्ण सिद्धांत (अ) गुण सिद्धांत (ब) निष्काम कर्म सिद्धांत हैं| श्रीमद्भगवद्गीता सम्प्रति विश्व-हितार्थ अपने सिद्धांतों से समरसता, शान्ति एवं समृद्धि स्थापित करने में सहायक है | आज आतंकवाद रूपी सुरसा के मुख में काल कवलित होती मानव जाति पाशविकता की चरमसीमा पर पहुँच चुकी है | सतत होती नृशंस हत्याएँ मानव जाति के लिए अभिशाप हैं | मानवीय मूल्यों की कमी से नृशंस हत्याएँ, व्यभिचार, हिंसा, दुराचार, कुटिल राजनीतिक षड्यंत्र, मानवीय गुणों को छोड़कर सभी अवगुणों ने मानव-शरीर को कुचक्र का स्थान बनाया है |
      प्रथमतः हम गीता के गुण सिद्धांत को उक्त सन्दर्भ में देखें तो प्रकृति से सत्व, रजस एवं तमस ये तीनों गुण उत्पन्न होते हैं | ये तीनों गुण अविनाशी देही को देह में रस्सीवत बाँधते हैं | वास्तव में देखा जाए तो ये तीनों गुण अपनी ओर से किसी को बंधन में नहीं रखते, प्रत्युत यह पुरुष ही इन गुणों के साथ बंधन स्वीकार कर लेता है| देही स्वयं अविनाशी रूप से यथावत् रहता हुआ भी गुणों की वृत्तियों के अधीन होकर स्वयं सात्विक, राजस तथा तामस बन जाता है | “सत्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृति संभवाः | निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम ||” (14/5) इसी सन्दर्भ में गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं- “ईश्वर अंशजीव अविनाशी | चेतन अमल सहज सुखरासी ||” इन तीनों गुणों का कार्य होने से सम्पूर्ण प्रकृति त्रिगुणात्मिका है, अतः शरीर, इन्द्रीयाँ, मन बुद्धि, प्राणी और पदार्थ आदि सब गुणमय ही हैं, यही ‘गुण विभाग’ कहलाता है | इन (शरीरादि) से होने वाली क्रिया ‘कर्म विभाग’ कहलाती है | (28/3) तीनों गुणों की वृत्तियाँ उत्पन्न एवं लीन होती रहती हैं | उनके साथ तादात्म्य स्थापित कर मनुष्य स्वयं को सात्विक, राजस एवं तामस मान लेता है अर्थात् उन गुणों का अपने में आरोप कर लेता है | (7/13) सत्वगुण सुख में, रजोगुण सकाम कर्म में तथा तमोगुण आलस्य में स्थिर कर ज्ञान को आच्छादित कर देता है | (14/9) इसी कारण मनुष्य असामाजिक क्रियाओं को करते हुए अशांति उत्पन्न करता है, शान्ति के अभाव में समृद्धि प्राप्त करना असम्भव है | परस्पर तीनों गुण एक-दूसरे गुण की वृत्तियों को दबाते हैं तथा अपनी वृद्धि करते हैं | (14/10) वर्तमान परिस्थितियों में तमोगुण की प्रधानता दृष्टिगत होती है, जो विश्व-शान्ति का चीर-हरण करने में संलग्न है | मनुष्य में जिस गुण की अधिकता होती है, तदनुरूप क्रियाओं का आयोजन करता है, सत्व उत्तम कर्मों में, रजस सकाम कर्मों में एवं तमस गुण गर्हित कर्मों में संलग्न करता है | (14/18) यही कारण है कि सम्प्रति प्रत्येक व्यक्ति स्वार्थान्धता से ग्रसित है | अपने द्वारा किन्चित्पि संपादित कार्य के लिये अपेक्षाएँ पोषित करने लगता है | अपेक्षाओं की पूर्ति या कमोवेश अपेक्षाओं का पूर्ण न होना मानसिक झंझावात उत्पन्न करता है | आज मानव के सीमातीत दुःख का कारण उसके द्वारा पोषित, पल्लवित एवं संबर्धित अपेक्षाएँ हैं | माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्रियाँ, गुरू-शिष्य एवं अन्य पारिवारिक जनों या सम्बन्धों में आरोपित अपेक्षाओं के बढ़ने से कटुता, हीनता, द्वेष, ईर्ष्या एवं प्रेम-अभाव स्थान ग्रहण कर लेता है तथा धीरे-धीरे उसकी परिणति विस्फोटक रूप धारण कर लेती है | अतः विश्व-शान्ति एवं समृद्धि के लिए आवश्यक है मानव में अंतर्निहित सत्व गुण को विकसित करने की | श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय सिद्धांत के रूप में “निष्काम-कर्म” के सिद्धांत को जाना जा सकता है | मनुष्य को ‘कर्म’ की अनिवार्यता के कारण कर्म करना अनिवार्य है | ऐसे में सकाम कर्म एवं निष्काम कर्म का स्व-विवेक से निर्धारण करना होता है | विश्व की शान्ति में सकाम कर्म जो किसी वासना, आकांक्षा, अभीप्सा और इच्छा पर अवलम्बित होते हैं, कुठाराघात करते हैं | इससे समरसता एवं सद्भावना का अभाव हो जाता है | आज आवश्यकता है ‘निष्काम कर्म’ की, जिससे कि बिना किसी अहंकार, ममता या आसक्ति के कर्म फलों के विचाराभाव में उचित कर्मों का पालन करना | समुदाय, समाज, देश एवं विश्व के लिए शान्ति एवं समृद्धि कारक होगा | अंततः यह कहना साभिप्राय होगा कि गीता के ‘गुण-कर्म सिद्धांत’ आधारित मार्ग पर चलकर मनुष्य संसार में प्रवृत्त होते हुए अपने परम् लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है |
                              -डॉ. वी. के. पाठक   



पुस्तकालय का इतिहास

                     -नीरज कुमार पाठक

वृक्ष की छाल से बने कागज का आविष्कार मिस्र में हुआ था। मिस्री लिपि का विकासकाल ईसा से 2000 वर्ष पूर्व माना जाता है। लगभग ईसा पूर्व 16वीं शताब्दी में राजा एमोनोफिस के काल का एक ग्रंथ वृक्ष-तत्व-निर्मित कागज प्राचीन मिस्र में अनेक पुस्तकालय थे1 इनमें से कई विदेशी आक्रमणकारियों के हाथ लग गए जिनमें से अनेक ग्रंथ तो ग्रीक राज्य के हाथ पड़े :
ये पुस्तकालय प्राय: वहाँ के विशाल मंदिरों और राजप्रासादों के साथ संबद्ध थे। सबसे पहला पुस्तकालय राजा ओसीमंडिया ने स्थापित किया था। उसने पवित्र पुस्तकों का एक विशाल संग्रह स्थापित किया था। राजा ओसीमंडिया ने पुस्तकालय के प्रवेशद्वार पर 'आत्मा के लिए ओषधि' शीर्षक पट्ट लगवाया था। पुजारियों के सरंक्षण में प्राचीन मिस्र में अनेक पुस्तकालयों का विकास हुआ था।
प्राचीन असीरिया राज्य की राजधानी निनिमि नगर में असुरवाणीपाल राजा का पुस्तकालय अत्यंत प्रसिद्ध था। इस पुस्तकालय में ग्रंथों की संख्या 20,000 थीं और यह राजा के निजी प्रासाद में स्थित था। राजा असुरवाणीपाल बड़े साहित्यप्रेमी थे और इस पुस्तकालय की स्थापना में उन्होंने बड़ा योग दिया था।
प्राचीन ग्रीस राज्य में पिसिष्ट्राटसन ने सर्वप्रथम एक पुस्तकालय की स्थापना की थी। इसके पश्चात्‌ अलेस गैलिस एवं महान्‌ दार्शनिक प्लेटो ने भी पुस्तकों के संग्रह स्थापित किए थे। ट्रावा के मतानुसार अरस्तू ही पहला दार्शनिक था जिसने पुस्तकालय की स्थापना की, परंतु अलैक्जैंड्रिया का प्राचीन पुस्तकालय ईसा से लगभग 300 वर्ष पूर्व स्थापित हुआ था। इस महानगर में दो प्रमुख पुस्तकालयों का उल्लेख मिलता है। बड़ा पुस्तकालय विश्वविद्यालय के साथ संबद्ध था। दूसरा पुस्तकालय सिरापियम विभाग के साथ था। अनुमान लगाया जाता है कि अलैक्जैंड्रिया के विशाल पुस्तकालय में लगभग 70,000 ग्रंथ थे। जूलियस सीजर ने 47 ई. में इस नगर पर आक्रमण किया और पुस्तकालय तथा पुस्तकालय के सभी ग्रंथ जलकर राख हो गए। आनेवाली पीढ़ियों के लिए यह महान्‌ क्षति थी। इस क्षतिपूर्ति की ओर क्लेओपेट्रा का ध्यान गया और उसने अलैक्जैंड्रिया में फिर एक विशाल पुस्तकालय की स्थापना की। उसने अनेक पुस्तकालयों का जीर्णोंद्धार भी कराया। सारसेनियों की भयंकर आक्रमण ज्वाला में यह पुस्तकालय भी सदा के लिए भस्म हो गया और रहा सहा संग्रह ओमर खलीफा की सेना ने समाप्त कर दिया।
ग्रीक साहित्य का रोम में बड़ा प्रचार था। अरस्तू के निजी पुस्तकालय को रोम के विजेता अपने यहाँ ले आए थे। ईसा से एक शताब्दी पूर्व लैटिन साहित्य के स्वर्णयुग में निजी पुस्तकालय कितने ही घरों में स्थापित किए जा चुके थे। परंतु जूलियस सीजर ने ही रोम में सार्वजनिक पुस्तकालय स्थापित करने की योजना बनाई थी जिसे बाद में उनके एक घनिष्ट मित्र एसिनिबस पोलियो ने कार्यान्वित की।
सम्राट् आगस्टस ने भी पोलियो की परंपरा का निर्वाह किया और उसने अनेक पुस्तकालयों की स्थापना की। रोम की राजधानी में चौथी शताब्दी में लगभग 28 महान्‌ ग्रंथागार थे। इनके सिवा लिवर, कोमन, मिलान, अथेंस, स्मिर्ण, पाट्री और हाकूलेनियम आदि प्राचीन नगरों में भी पुस्तकालयों के होने का उल्लेख मिलता है।
अन्य देशों की भाँति भारत में भी पुस्तकालयों की परंपरा आदिकाल से चली अ रही है। आज के लगभग छह हजार वर्ष पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता अपनी चरम सीमा पर थी। इस प्रकार के अनेक प्रमाण मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त हुए हैं। सिंधु सभ्यता का सुसंस्कृत समाज पंजाब से लेकर सिंधु और बिलोचिस्तान तक फैला हुआ था। संभवत: उस काल में चित्रलिपि का विकास भारत में हो चुका था। इतिहासकार यह बात स्वीकार करते हैं कि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में अनेक पुस्तकालय थे। सिंधु सभ्यता के पतन के पश्चात्‌ लगभग 3000 ई. पूर्व भारत में आर्यों का आगमन हुआ। इन्होंने ब्राह्मी लिपि का आविष्कार किया। भोजपत्रों एवं ताड़पत्रों पर ग्रंथ लिखे जाते थे, परंतु शिष्यों के लिए उनका उपयोग सीमित ही था। गुरुओं के पास इस प्रकार की हस्तलिखित पुस्तकों का संग्रह रहता था जिसे हम निजी पुस्तकालय कह सकते हैं। वैदिक काल में वेदों, इतिहासों और पुराणों, व्याकरण और ज्ञान की अनेकानेक शाखाओं से संबंधित ग्रंथों को लिपिबद्ध किया गया। इस काल में अनेक विषय गुरुकुलों में छात्रों को पढ़ाए जाते थे और उनसे संबंधित अनेक ग्रंथ पुस्तकालयों पर भी पड़ा। अहमदाबाद, पटना, पूना, नासिक और सूरत आदि नगरों में आज भी प्राचीन जैन ग्रंथों के संग्रह हैं। भारतीय ज्ञानपीठ के प्रयत्न से दक्षिण में पाँच ग्रंथालयों की खोज की गई तो उनमें अनेक ताड़पत्र हस्तलिखित ग्रंथ और अप्रकाशित ग्रंथ प्राप्त हुए।
बौद्धकाल में तक्षशिला और नालंदा जैसे शिक्षा केंद्रों का विकास हुआ जिनके साथ बहुत अच्छे पुस्तकालय थे। तक्षशिला के पुस्तकालय में वेद, आयुर्वेद, धनुर्वेद, ज्योतिष, चित्रकला, कृषिविज्ञान, पशुपालन आदि अनेक विषयों के ग्रंथ संगृहीत थे। ईसा से लगभग 500 वर्ष पूर्व नालंदा के विशाल पुस्तकालय का वर्णन मिलता है। इस पुस्तकालय का नाम धर्मजंग था जिसकी स्थापना सभादित्य ने की थी। इस पुस्तकालय को अनेक बड़े-बड़े राजाओं और धनी साहूकारों से आर्थिक सहायता मिलती थी। पुस्तकालय में तीन भाग थे- रत्नोधि, रत्नसागर और रत्नरंजम। पुस्तकें इन विभागों के विषयानुसार व्यवस्थित की जाती थीं और उनकी पूर्ण सुरक्षा की जाती थी। अनेक विदेशी विद्वानों ने, जैसे चीनी यात्री फाहीयान, ह्वेनसांग और इत्सिंह ने अपने यात्रावृत्तांतों में नालंदा पुस्तकालय का वर्णन किया है। ये अपने साथ अनेक हस्तलिखित ग्रंथ भी ले गए थे। इनके अतिरिक्त अनेक विदेशी विद्वान नालंदा के पुस्तकालय में अध्ययन करने के लिए आए। वैसे तो बौद्ध राजाओं के निर्बल होने पर अनेक शासकों ने इस पुस्तकालय पर कुदृष्टि डाली परंतु बख्त्यार खिलजी ने सन्‌ 1205 ई. में इसका पूर्ण विध्वंस कर दिया। कुछ ग्रंथों को लेकर छात्र और भिक्षु भाग गए। इस प्रकार शताब्दियों से संरक्षित और पोषित ज्ञान के इस अनन्य केंद्र का लगभग अंत ही हो गया। इन्हीं पुस्तकालयों की श्रेणियों में विक्रमशिला एवं वल्लभी के पुस्तकालय थे जो पूर्ण रूप से विकसित थे। राजा धर्मपाल ने विक्रमशिला के पुस्तकालय की स्थापना की थी और यहाँ पर अनेक हस्तलिखित ग्रंथ सुसज्जित थे। इस पुस्तकालय का भी दु:खद विध्वंस बख्त्यार खिजली की कुदृष्टि के द्वारा ही हुआ।
गुजरात राज्य में वल्लभी नगर में एक विशाल पुस्तकालय था जिसकी स्थापना राजा धारसेन की बहन दक्षा ने की थी। इस पुस्तकालय में पाठ्‌य ग्रंथों के अतिरिक्त अनेकानेक विषयों की पुस्तकें संगृहीत थीं। पुस्तकालय का संपूर्ण व्यय राजकोष से ही वहन किया जाता था। इस प्रकार प्राचीन भारत में पुस्तकालयों का समुचित विकास अपनी चरम सीमा पर था।
मुस्लिम काल में भी हमारे देशा में अनेक पुस्तकालयों का उल्लेख मिलता है जिनमें नगरकोट का पुस्तकालय एवं महमूद गवाँ द्वारा स्थापित पुस्तकालय था। अकबर के पुस्तकालय में लगभग 25 हजार ग्रंथ संगृहीत थे। तंजीर में राजा शरभोजी का पुस्तकालय आज भी जीवित है। इसमें 18 हजार से अधिक ग्रंथ तो केवल संस्कृत भाषा में ही लिपिबद्ध हैं। विभिन्न विषयों से संबंधित भारतीय भाषाओं के अति प्राचीन दुर्लभ ग्रंथ भी यहाँ सुरक्षित हैं।
                                                                                -नीरज कुमार पाठक





शिक्षक : राष्ट्र विधाता एवं राष्ट्र निर्माता


गुरूर्ब्रह्मा  गुरूर्विष्णुः  गुरूर्देवो  महेश्वरः |
गुरोर्साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः ||
-श्वेताश्वेत्तर उपनिषद्

प्राचीन काल में गुरू के प्रति उज्ज्वल भावों का समन्वय था | गुरू ब्रह्मा है, विष्णु है, महेश्वर है | वह समस्त ब्रह्मांड है | उसे प्रणाम है | यह श्लोक उस चरित्र के बारे में बातलाता है, जो मनुष्यों के व्यक्तित्व का निर्माण करता है | राष्ट्र का निर्माता, शिक्षा-पद्धति की आधार-शिला, समाज को गति प्रदान करने वाला शिक्षक ही है | शिक्षक देश की संस्कृति का निर्माता है और देश के सांस्कृतिक गौरव को अमर बनाए रखने में उनका महत्वपूर्ण हाथ होता है | हमारी संस्कृति का परिचय भावी नागरिकों को अध्यापक ही देता है | समाज में विनम्रता और शिष्टता का पाठ सिखाया जाता था, बल्कि अनेक प्रकार के दुर्व्यसनों से दूर रहने और भोगेश्वर्य के प्रति वितृष्णा भी अनुभव होने लग जाती थी | उस समय शिक्षकों एवं विद्यार्थियों के मध्य अपनत्व एवं सौहार्द्र का सम्बन्ध रहता था | छात्र अपने गुरू का पूर्ण सम्मान करते थे और उनके हर आदेश का पालन करे में विलम्ब नहीं करते थे | शिक्षक भी उन्हें सच्चे हृदय से शिक्षा प्रदान करते थे | इस तथ्य को जानते हुए तत्कालीन समाज और राज्य भी शिक्षकों का अधिकतम सम्मान करते थे और यथासंभव उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये तत्परता दिखाई जाती थी | किन्तु आज यह स्थिति नहीं रही है | आज शिक्षा का दान शिक्षक की आजीविका का साधन बन गया है और विद्यार्थियों में शिक्षकों के प्रति श्रद्धा का अभाव है | समाज ने शिक्षक के प्रति उपेक्षा ही दिखाई देती है | राज्य तो शिक्षकों का स्वामी बना हुआ है | इस स्थिति में शिक्षक स्वयं को कुंठा-ग्रस्त पायें तो आश्चर्य नहीं | फिर सच्ची शिक्षा का लक्ष्य तो बहुत ऊँचा होता है | अतः शिक्षक के लिये आवश्यक है कि वह कुंठाओं को दूर करे, तभी वह सच्ची शिक्षा प्रदान कर सकता है |    
       यह सच्ची शिक्षा क्या है ? इस सम्बन्ध में महात्मा गाँधी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों पर ध्यान देने की आवश्यकता है | “सा विद्या या विमुक्तये” इस प्राचीन कालीन ऋषि वाक्य की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा- “जो चित्त को शुद्ध न करे, मन तथा इन्द्रियों पर संयम न सिखाए, निर्भयता एवं स्वावलंबन उत्पन्न न करे, जीवन-निर्वाह का साधन न बताये और गुलामी से छूटने तथा स्वतंत्रता में रहने की सामर्थ्य तथा उत्साह उत्पन्न न करे, उस शिक्षा में चाहे कितनी जानकारी का खजाना या तार्किक पांडित्य उपलब्ध हो, वह शिक्षा नहीं है, यदि है तो अधूरी शिक्षा है |” प्रत्येक बालक संस्कार रूप में कुछ प्रतिभा-शक्ति लिये हुए संसार में जन्म लेता है | उस जन्मजात प्रतिभा एवं शक्ति को उभारकर स्वस्थ रूप प्रदान माता-पिता एवं शिक्षक का परम कर्तव्य है | वे चाहें तो सावधानी एवं बुद्धिमत्ता से उपयुक्त वातावरण एवं विचार-संजीवनी शक्ति रूपी उर्वरता प्रदान कर महाप्राण शक्ति का निर्माण कर सकते हैं, अन्यथा अपनी उपेक्षा द्वारा उसे स्वच्छन्दतापूर्ण व्यवहार से दानव निर्माण में सहायक होंगे |
       सत्य-विद्या के स्वरूप और ध्येय को पहचान कर शिक्षक और विद्यार्थी शिक्षा-क्रम को अपनाएँ तो निश्चय ही मानव की स्वार्थ-परायण पाशविक वृत्तियों का दमन होकर, विश्व-प्रेम की स्थापना संभव हो सकती है | योगी अरविन्द ने शिक्षकों को राष्ट्र की संस्कृति का चतुर माली कहा है | वे संस्कारों की जड़ों को खाद देते हैं तथा अपने श्रम से सींचकर महाप्राण शक्ति का निर्माण करते हैं | विश्वकवि टैगोर ने विद्यालयों को मानवता का केंद्र कहकर संबोधित किया है | इसका आशय यही है कि भारतीय परम्परा में हुए आत्मदर्शी योगियों एवं साहित्य निर्माताओं की सूक्ष्म-दृष्टि पर आधारित जीवन की जो मान्यताएँ हमारे पथ-प्रदर्शन हेतु उपलब्ध हैं, उन्हें ह्रदय में स्थान देकर हमारा शिक्षक मनोवैज्ञानिक ढंग से और परिस्थितियों के अनुरूप शिक्षा को ढालकर विद्यार्थियों को विद्या का दान करें, तभी उन्नतिशील सुख-समृद्धि से पूर्ण स्पृहणीय समाज की रचना हो सकती है |
       वस्तुतः शिक्षक वह प्रकाश-पुंज है, जो अपनी आत्मा की ज्योति को समाज के मानस में व्याप्त कर अपने व्यक्तित्व की आभा से अखिल राष्ट्र को प्रदीप्त कर सकता है | वही शिक्षक यदि प्रमाद करे, तो राष्ट्र को अधःपतन की ओर ले जाने में सहायक हो सकता है | शिक्षक समाज से अज्ञानांधकार का हरण करने वाला प्रकाश-स्तंभ है | शिक्षक वह सर्वशक्ति सम्पन्न व्यक्तित्व है, जो प्राणिमात्र के उत्कर्ष और कल्याण के लिये अपना समस्त जीवन समर्पित कर देता है | उसके इस समर्पण में ही समाज व राष्ट्र का कल्याण निहित है | शिक्षक नैतिक, आध्यात्मिक, मानसिक तथा भौतिक शक्तियों का अथाह भंडार होता है | उसमें अदम्य राष्ट्र-निर्माण शक्ति केंद्रीभूत रहती है और उसमें मानवता का विकास करने की अनुपम क्षमता भी होती है, अपनी इसी शक्ति और क्षमता का सदुपयोग करके ही शिक्षक सुन्दर समाज की रचना कर सकता है और इसके विपरीत उसकी असावधानी से समाज का पतन अवश्यंभावी है |
       शिक्षक तथा समाज का घनिष्ठ सम्बन्ध है | शिक्षक के विचार, मन:स्थिति, आचरण और व्यवहार ज्ञात एवं अज्ञात रूप से समाज को प्रभावित करते हैं | शिक्षक का चरित्र विद्यार्थी तथा समाज के लिये आचरण की पाठशाला है | कक्षा में दिए हुए वक्तव्य एवं अध्यापन से कहीं अधिक प्रभाव उनके निजी स्वभाव, प्रकृति और आचरण का विद्यार्थी प्रभाव परिलक्षित होता है | इसलिए कक्षा में पाठ्यपुस्तक पढ़ाने के साथ-साथ अध्यापक को अपने आचरण एवं व्यवहार के प्रति सतर्क होना वांछनीय है | महात्मा गाँधी आचरणहीन ज्ञान को सुगंधि में लिपटे हुए शव के समान समझते थे | वास्तव में मनुष्य की महत्ता उसके उत्तम चरित्र में है, यदि अध्यापक के ह्रदय में सच्चे अर्थों में अच्छे समाज के निर्माण की आकांक्षा है, तो निश्चय ही वह अपना चरित्र उन आदर्शों में व्यवस्थित करने के लिये प्रयत्नशील होगा, जिनसे वह समाज को परिवर्तित करना चाहता है | उसके हाथ में विद्यार्थी मण्डल की महान शक्ति है, जिसके माध्यम से वह समाज की पुन: रचना कर सकता है|
       हुमायूँ कबीर के अनुसार “शिक्षक राष्ट्र के भाग्य निर्णायक हैं यह कथन प्रत्यक्ष रूप से सत्य प्रतीत होता है, परन्तु अब इस बात पर अधिक बल देने की आवश्यकता है कि शिक्षक ही शिक्षा के पुनर्निर्माण की महत्वपूर्ण कुँजी है | यह शिक्षक वर्ग कि योग्यता ही है, जो कि निर्णायक है |” शिक्षक को ईश्वर के समकक्ष माना जाता था | इस विषय में एस. बाल कृष्ण जोशी का कथन उल्लेखनीय है | उनके शब्दों में, “एक सच्चा शिक्षक धन के अभाव में धनी होता है, उसकी सम्पत्ति का विचार बैंक में जमा धन से नहीं किया जा सकता |” शिक्षक ही विद्यालय तथा शिक्षा-पद्धति की वास्तविक गत्यात्मक शक्ति है | शिक्षक ही वह शक्ति है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आने वाली संततियों पर अपना प्रभाव डालती है | शिक्षक ही राष्ट्रीय तथा भौगोलिक सीमाओं को अतिक्रमित कर विश्व-व्यवस्था तथा मानव जाति को उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है | इस प्रकार शिक्षक का महत्व समाज तथा शिक्षा-व्यवस्था दोनों में ही स्पष्ट है | वस्तुत: शिक्षक उन भावी नागरिकों का निर्माण करता है, जिनके ऊपर राष्ट्र के उत्थान का भर है | इस संदर्भ में सैयदेन कहते हैं – “हमें यह नहीं भूलना चाहिए शिक्षण एक उद्दात व्यवसाय है और मानव-इतिहास की महानतम तथा श्रेष्ठतम विभूतियों ने इस व्यवसाय को अपनाया था, क्योंकि सभी युगों में समस्त महान धार्मिक नेता तथा सुधारक – बुद्ध, कन्फ्यूशियस, सुकरात, मुहम्मद, गुरू नानक, कबीर साहब आदि इस शब्द के सच्चे अर्थ में मानव-जाति के शिक्षक थे |”
                                                       वी. के. पाठक
                                         साभार : डी.ई.आई. पत्रिका (२०००-२००१) से पुनर्प्रकाशित   
         



सहशिक्षा कब और क्यों?

सहशिक्षा के सम्बन्ध में विद्वानों के विभिन्न मत हैं जिन्हें निम्न परिभाषाओं के माध्यम से समझा जा सकता है | ब्रिटेनिका विश्वकोश के अनुसार सहशिक्षा का अर्थ है- “ लड़के तथा लड़कियों को एक ही समय, एक ही स्थान पर, एक ही अधिकारी द्वारा, एक ही शासन के अधीन, एक ही तरीके से, एक ही पाठ्यक्रम पढ़ाया जाय |” माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) के शब्दों में “समता के आधार पर एक ही संस्था में लड़के एवं लड़कियों को शिक्षा देना सहशिक्षा कहलाता है |” इस प्रकार कहा जा सकता है कि सहशिक्षा संस्थाओं में लड़के एवं लड़कियाँ साथ-साथ पाठ्यचर्या को पूर्ण करते हैं |
सहशिक्षा व्यवस्था भारत के लिये नई नहीं है | वैदिक काल में लड़के एवं लड़कियाँ गुरू के आश्रम में एक साथ शिक्षा ग्रहण करते थे | स्वतंत्रता के पश्चात् सहशिक्षा संस्थाओं में द्रुतगति से  विकास हुआ है, विशेषकर पब्लिक स्कूल प्रणाली में | विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1948-49) का विचार था कि लोगों की राय ऐसी मालूम होती है कि तेरह या चौदह वर्ष की आयु से लगभग अठारह वर्ष की आयु तक लड़के-लड़कियों के विद्यालय अलग-अलग हों | आयोग ने स्पष्ट किया कि यह स्पष्ट नहीं होता कि इस विचारधारा का आधार रीति-रिवाज हैं अथवा अनुभव | आयोग कि अनुशंसाओं के अनुसार, कॉलेज में प्रवेश की आयु लगभग अठारह वर्ष हो | अतः कॉलेज में सहशिक्षा हो सकती है, जैसा कि आज तक मेडिकल कॉलेज में होता है | इस स्तर पर अनावश्यक रूप से व्यय की वृद्धि होगी | लड़के-लड़कियों के लिये अलग-अलग कॉलेज बनाने में दोहरे उपकरणों की आवश्यकता होगी, जो अभी पर्याप्त नहीं हैं और साथ ही साथ इनका भार हमारे सीमित साधनों पर पड़ेगा | लड़कियों के अलग कालेजों में साधारणतया हीन उपकरण, अपेक्षाकृत कम योग्यता वाले अध्यापक और अनुपयुक्त विद्यालय भवन होते हैं | यथासंभव कॉलेज-स्तर पर सहशिक्षा को बढ़ावा दिया जाए |
      माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) का विचार है- “ऐसा जान पड़ता है कि सहशिक्षा के सम्बन्ध में हमारे स्कूलों कि शिक्षा प्रणाली उस समुदाय कि सामाजिक पद्धति से आगे नहीं बढ़ सकती है जिसमें कि स्कूल स्थापित किये जाने चाहिए | हमारा विचार है कि जिन स्थानों पर संभव हो वहाँ लड़कियों के पृथक् स्कूल हों क्योंकि ये मिश्रित स्कूलों की अपेक्षा उनकी शारीरिक, सामाजिक और मानसिक विशेषताओं के विकास के लिये अधिक अवसर प्रदान करेंगे और सभी राज्यों को ऐसे स्कूल पर्याप्त संख्या में खोलने चाहिए | परन्तु ये उन लड़कियों के लिये खोले जाने चाहिए, जिनके अभिभावकों को मिश्रित स्कूलों की सुविधाओं से लाभ उठाने में आपत्ति हो |” इसी प्रकार शिक्षा आयोग (1964-66) ने सहशिक्षा के सम्बन्ध में अपने सुझाव देते हुए कहा कि  “कॉलेज के स्तर पर स्थानीय ऐतिहासिक परम्पराएँ और सामान्य सामाजिक पृष्ठभूमि यह निर्धारित करती हैं कि वहाँ महिलाओं के लिये पृथक् कॉलेज हों या मिश्रित कॉलेज हों | शिक्षा के स्तर के लिये सहशिक्षा की समरूपी नीति आवश्यक नहीं है, परिस्थिति प्रत्येक राज्य में भिन्न है |...........अतएव, इस स्तर पर सहशिक्षा सम्बन्धी नीति का निर्णय प्रत्येक राज्य की सरकार को करना होगा |” पूर्व स्नातक स्तर पर यदि स्थानीय मांग हो तो महिलाओं के लिये पृथक् कॉलेज स्थापित किये जा सकते हैं | शिक्षा आयोग के विचार में स्नातकोत्तर स्तर पर महिलाओं के लिये पृथक् शिक्षा संस्थाओं का कोई औचित्य नहीं है |
       सहशिक्षा के समर्थन में तर्क दिया जाए तो तीन तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं | प्रथम, आर्थिक दृष्टिकोण से देखें तो लड़कों की तुलना में कम जनसंख्या होने के कारण अलग स्कूल या कॉलेज खोलना आर्थिक दृष्टि से हानिकारक है | विशेषकर यह परिस्थिति ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों में बहुत ही गंभीर समस्याएँ उत्पन्न कर देती हैं | वही भवन, वही साधन-सामग्री, पुस्तकालय तथा अन्य सुविधाएँ लड़कियों के लिये भी प्रयुक्त की जा सकती हैं | अतः अतिरिक्त वित्तीय भार और अनावश्यक वृद्धि अपव्ययपूर्ण होगी | द्वितीय दृष्टिकोण मनोवैज्ञानिक है, जिसमें नारी-शिक्षा की राष्ट्रीय समिति का कथन है –“पारस्परिक सम्पर्क जिज्ञासा की उस भावना का अंत कर देता है, अजनबीपन के कारण उत्पन्न हो जाती है जो लिंगों के अलगाव और पृथकता की विशेषता है |” ऐसा समझा जाता है कि केवल साथ रहने से ही प्राकृतिक भावनाओं की समझ व आत्मविश्वास की भावना आ सकती है | एक विद्वान लेखक का मत है-“भावी माताओं को ऐसा नहीं होना चाहिए कि वे आँसू भरकर कहें कि वे पुरुषों को समझती ही नहीं |” ऐसा माना जाता है कि सहशिक्षा के द्वारा यौन प्रवृत्ति को उचित मार्ग दिया जा सकता है | तृतीय कारक के रूप में भावनात्मक संतुलन को प्रस्तुत किया जा सकता है | ऐसा समझा जाता है कि पुरूष एक हिंसक पशु है और वह नारी के कारण सीमाओं को ध्वस्त नहीं कर पाता है | लड़के–लड़कियाँ परस्पर गुण ग्रहण कर सकते हैं- लड़के, लड़कियों से धैर्य और लड़कियाँ, लड़कों से आत्मनिर्भरता | इस प्रकार लड़के अधिक सुधरे बनते हैं तथा लड़कियाँ कम लज्जावती और नाजुक बनतीं हैं |
      सहशिक्षा के विरोध में अनेकों विद्वानों ने स्वर मुखरित किया है | विरोध स्वरूप अनेकों तथ्य प्रस्तुत किये हैं | मनोवैज्ञानिक स्तर पर- प्रथम, सहशिक्षा बालक की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करती है | द्वितीय, सहशिक्षा संस्थाओं में कामुकता की भावना का विकास होता है | सहशिक्षा संस्थाओं में कई प्रकार का यौन उल्लघन होना पाया गया है | नैतिक स्तर पर नये रोमांस या दुस्साहस की भावना उत्पन्न होने का भय बना रहता है | एक नवयुवक नैतिकता की उपेक्षा करके पतन की और अग्रसर हो सकता है | इसी प्रकार भावनात्मक असंतुलन सहशिक्षा संस्थाओं में पाया जाता है- सहशिक्षा संस्थाओं से कई बार नवयुवक एवं नवयुवतियाँ भावुकता की दृष्टि से दीवालिए होकर निकलते हैं | वे अनेकों प्रकार के मानसिक रोगों से पीड़ित हो जाते हैं | कई बार सहशिक्षा संस्थाओं में अध्यापक एवं विद्यार्थी लिंग-भावना के आकर्षण से ग्रस्त हो जाते हैं | आत्माभिव्यक्ति के अवसरों का अभाव पाया जाता है | साझे पाठ्यक्रम में छात्राओं को उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप क्रियाओं का प्रायः अभाव पाया जाता है | सामाजिक स्तर पर भी सहशिक्षा को आदर्श पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व की नैतिक संहिता का उल्लंघन माना जाता है |
       विभिन्न मतों एवं तथ्यों के विश्लेषण के उपरांत कहा जा सकता है कि आरंभिक स्तर पर सहशिक्षा हो | इस स्तर पर सभी का मतैक्य है कि 6-11 आयुवर्ग के लड़के-लड़कियों में किसी प्रकार के खतरे एवं दुष्परिणाम का भय नहीं रहता | माध्यमिक स्तर पर सहशिक्षा नहीं होनी चाहिये- एक प्राचीन कहावत है कि घी एवं अग्नि को साथ-साथ रखा जाए तो प्रज्वलन अवश्यम्भावी है | यही कारक युवक एवं युवतियों की 11-18 वर्ष की आयु में हुए शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों के कारण होते हैं | विश्वविद्यालय स्तर पर सहशिक्षा का प्रावधान होना चाहिए, क्योंकि अधिकांशतः 18 वर्ष की आयु के बाद वे पूर्णतः परिपक्व हो जाते  हैं | इस अवस्था में सहशिक्षा के सम्बन्ध में कम वाद-विवाद है |   

                                     डॉ. वी. के पाठक
                                     डॉ. सुरत पी. पाठक 


लिंगीय पक्षपात ग्रामीण विकास में बाधक (आलेख)




डॉ. वी. के. पाठक
साभार: समाज कल्याण (वर्ष 47, अंक 5, दिसम्बर 2001) से पुनर्प्रकाशित 


राजनीति एवं प्रशासन में महिलाएं (आलेख) 





डॉ. वी. के. पाठक
साभार: समाज कल्याण (वर्ष 47, अंक 1, अगस्त 2001) से पुनर्प्रकाशित 

बालिका शिक्षा का महत्व (आलेख)


 

-डॉ. वी. के. पाठक
साभार: समाज कल्याण (वर्ष 46, अंक 1, अगस्त 2000) से पुनर्प्रकाशित 

कृषि क्षेत्र और महिलाएं (आलेख)


-डॉ. वी. के. पाठक
साभार: समाज कल्याण (वर्ष 45, अंक 1, अगस्त 1999) से पुनर्प्रकाशित 



बाल श्रमिक और सर्वोच्च न्यायालय का फैसला




साभार: समाज कल्याण (वर्ष 44 , अंक 10, मई 1999) से पुनर्प्रकाशित

जनसंख्या वृद्धि से पर्यावरणीय ह्रास (आलेख) 



डॉ. वी. के. पाठक
साभार: समाज कल्याण (वर्ष 41, अंक 11, जून 1996) से पुनर्प्रकाशित 

सच्ची भारतीयता के संस्कार दें नौनिहालों को 

किसी भी राष्ट्र के सर्वतोन्मुखी विकास के लिये तथा आजादी की शमा को रोशन रखने के लिये यह अत्यंत आवश्यक है कि बच्चों में देश-प्रेम की भावना विकसित की जाए| आज के बच्चे ही कल देश के भावी कर्णधार होंगे | घर ही बच्चों की प्राथमिक शाला है | अतः माता-पिता का यह परम कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों में देश-प्रेम की भावना पैदा करें, जिस तरह हम अपने माता-पिता, भाई-बहन तथा परिवारीजनों से प्रेम करते हैं, उसी प्रकार देश के प्रति अनुराग भी स्वाभाविक भावना है, सिर्फ़ जरूरत है, उसे विकसित करने की |
जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो उसके अहित की बात हम स्वप्न में भी नहीं सोच सकते | यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि देश के प्रति प्रेम ही उन्हें इसका अहित करने से रोकेगा | फिर न आतंकवाद होगा, न उग्रवाद | भारत माता के प्रति श्रद्धा का भाव देश-वासियों में एक होने एवं सब भेदों को भूलकर एक मातृभूमि की सन्तान होने का प्रेम जगाता है |
रीति-रिवाज, धर्म, उपासना, भाषा-वेशभूषा के भेदों के विद्यमान होने पर भी राष्ट्र के सम्मान की भावना पारंपरिक प्रेम व सद्भावों को विकसित करती है |
बच्चों के कोमल मन पर सर्वाधिक प्रभाव माता-पिता के आचरण का पड़ता है | भाषण देने की अपेक्षा हमारे व्यवहार से वे अधिक सीखते हैं | हमारे मन में यदि देश-परम की भावना है तो स्वभाविक रूप से वे हमारे बच्चों में भी पनपेगी | कितने घरों में आज हमारी गौरवशाली संस्कृति का गुणगान व अनुसरण होता है? कितने ऐसे घर हैं जहाँ ‘युग’ अथवा ‘स्वराज’ जैसे धारावाहिकदेखे जाते हैं ? बच्चों में देश के प्रति प्रेम व सम्मान विकसित करने के लिये कुछ सुझाव हैं-
१.       भूलकर भी बच्चों के सामने देश की बुराई न करें |
२.       रेडियो तथा दूरदर्शन पर देशभक्ति गीत व धारावाहिक सुनें व देखें तथ बचों को भी प्रेरणा दें |
३.       स्वतंत्रता-सेनानियों के चित्र घर में टाँगें तथा स्वतंत्रता का महत्व बतलाएँ |
४.       महापुरुषों की कहानियाँ उन्हें बताएँ | महापुरुषों की जीवनियाँ तथा उनसे सम्बन्धित साहित्य लाकर दें |
५.       राष्ट्रीय ध्वज, गान या गीत एवं दिवस का महत्व एवं सम्मान बताएँ |
६.       बच्चों को स्वदेशी चीजों को अपनाने की सलाह दें | विदेशों के सव्ज बाग़ न दिखाएँ क्योंकि “ लाख लुभाये महल पराये, अपना घर फिर अपना घर है|”


डॉ. वी. के. पाठक

साभार: ‘मानव कल्याण’ (अंक १, अप्रैल २०००) से पुनर्प्रकाशित      

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