सोमवार, 20 जनवरी 2014

भारतीय संस्कृति एवं दर्शन



                                      - डॉ. वी. के. पाठक
दुर्लभं त्रयमेवैतद देवानुग्रह हेतुकम |
मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुष संश्रयं ||

परमात्मा की सृष्टि में मनुष्य ही सर्वाधिक बुद्धि सम्पन्न, चिंतन तथा मनन की क्षमता से युक्त प्राणी है | अपने स्वाभाविक, कौतुहल, संशयात्मक प्रवृत्ति की संतुष्टि हेतु ज्ञान को खोज लेने की उसकी सदैव उत्कंठा रही है | चित्र-विचित्र विश्व एवं विश्व के क्रियाकलापों को देखकर मानव मस्तिष्क चकित रह जाता है | वह यह विचार करने के लिए वाध्य हो जाता है कि सुप्रतिष्ठित एवं सुव्यवस्थित इस जगत का कर्ता कौन है ? यह विश्व कहाँ से आया ? आदि | इस प्रकार के अगणित प्रश्नों के समाधानार्थ मानव-मस्तिष्क अनवरत रूप से विचारशील रहता है |
      भारतवर्ष, जहाँ ज्ञान का सूर्य मेघाच्छन्न आकाश को चीरकर आलोकित हो उठा, अपनी प्राचीन, आध्यात्म प्रधान, सर्वसमन्वयकारी, उदार एवं व्यापक संस्कृति, आदर्शयुक्त सभ्यता, साहित्य-वैशिष्ट्य, कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान, एवं दार्शनिक तत्व-चिंतन की दृष्टि से विश्व का अग्रज रहा है | अप्रवाहहीन पंकिल, सरोवर में नीलकमल की भांति, ज्ञान का उदय, प्रत्युष वेला में, बाल रवि की भांति, प्रसार-विस्तार भारतवर्ष में ही हुआ, जिसने दूर-दूर तक जन मानष के कल्मष को प्रक्षालित कर दिया | किसी भी देश की संस्कृति उस देश के संपूर्ण जीवन की परिचायक होती है | यथा भारतीय संस्कृति के स्वरूप को प्रस्तुत करता निम्न श्लोक-
सर्वे  भवन्तु  सुखिनः  सर्वे  सन्तु निरामया |
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत् ||

      इस प्रकार समभाव रखते हुए भारतीय मनीषियों ने जीवन के रहस्यों को खोज निकाला, जिससे वे परमार्थ के मानसरोवर में निमग्न आनन्दानुभूति करने लगे | जीवन के झंझावातों से बचकर सत्य एवं असत्य, जड़ एवं चेतन तथा दुःख तथा सुखादि तत्वों को समझने के लिए सृष्टि के आरम्भ से ही भारतीय मनीषी अपनी समस्त शक्तियों को प्रयुक्त करते चले आ रहे हैं | जीवन में सरलता, अन्तःकरण में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की उदात्त भावना, सत्य-प्रियता,जगत का मिथ्या होने का ज्ञान, भक्ति व आत्म समर्पण, चिर सुख तथा परम आनंद की प्राप्ति के लिए उत्सुकता, सामान्यतः प्रत्येक भारतीय के क्रिया-कलापों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर होती है |

      ज्ञान, कर्म एवं भक्ति की त्रिपथगा का प्रवाह मंत्रद्रष्टा ऋषियों के मस्तिष्क से उद्भूत हुआ | जिसे कि दर्शन की संज्ञा प्रदान की गई | पशु से भिन्न मानव अपनी बुद्धि की सहायता से संसार का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार जीवन-यापन करना चाहता है | वर्तमान के साथ-साथ भविष्य के परिणामों के बारे में सोचता हुआ बुद्धि की सहायता से युक्तिपूर्वक ज्ञान प्राप्त करता है, युक्तिपूर्वक तत्वज्ञान प्राप्त करने के प्रयत्न को ही दर्शन कहते हैं | ‘दृश्यते अनेन इति दर्शनम्’ केवल चर्मचक्षुओं द्वारा देखकर या मनन करके सोपपत्तिपूर्वक निष्कर्ष निकालना, दर्शन शब्द का अभिधेय है | सुख की प्राप्ति एवं दुःख (प्रत्येक मनुष्य तीन प्रकार के दुखों से त्रस्त रहता है – (१) आध्यात्मिक, (२) आधिदैविक, (३) आधिभौतिक; प्रथम प्रकार का शारीरिक एवं मानसिक दुःख होता है, दूसरे प्रकार के दुःख के निमित्त देव होते हैं, तृतीय; अन्य प्राणीयों से प्राप्त |) की निवृत्ति मानव की प्रकृति है | भारतीय संस्कृति के अनुसार दुःख के मूल में सुख विराजमान है | भारतीय संस्कृति में सुख-दुःख की परिभाषा में दो मूल बातें हैं- पहला, दृष्टव्य सांसारिक सुख और दूसरा आत्मानुभूति द्वारा प्राप्त वह आनंद जो अपने में परम सुख है | सांसारिक सुख को अचिर व परमसुख को साथ ही साथ चिर सुख की संज्ञा दी है | परम सुखानुभूति में खोने वाला व्यक्ति सांसारिक सुखों के भोग से परे रहता है, यह अकाट्य सत्य है कि आज के युग में प्रत्येक व्यक्ति परम सुख की कल्पना से जुड़ नहीं सकता | संसार में रहते हुए सांसारिक भोगों को उचित प्रकार से भोगते हुए अंत में श्रेयस मार्ग की ओर बढ़ने का अवसर प्रदान किया जाए, ऐसा हमारे मनीषियों का प्रयास रहा है, इस दुःखमय संसार से दुःख त्रय का नाश ही ‘दर्शन’ विद्या की उत्पत्ति का लक्ष्य है |
      वर्तमान में उपयुक्त तथ्यों की अवहेलना ही दृष्टिगत होती है, विश्व के प्रत्येक भाग में मानव सांसारिक सुख की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के दुष्कर्मों की वैतरिणी में निमग्न है | आज पाश्चात्य देशों में ज्ञान-विज्ञान की अत्यधिक उन्नति होने पर स्वार्थमूलक भावना के कारण उपलब्ध ज्ञान शांति एवं संतोष के स्थान पर संघर्ष, प्रतियोगिता एवं विनाश का कारण बन रहा है | मानव आधुनिकता के नाम पर स्वयं को भुलाकर तामसी एवं पाशविक प्रवृत्तियों से पूर्ण असभ्यता एवं आत्मा-अवनति के गर्त में स्वयं को निक्षेपित करता चला आ रहा है | अतः वर्तमान में ऐसे दार्शनिक चिंतन की आवश्यकता परिलक्षित होती है, जिसके माध्यम से मानव पाशविक प्रवृत्तियों के घर्षण के पिष्टपेषण होने से बचकर आत्मानुभूति करके व्यावहारिक दृष्टि से निस्वार्थ कार्य करने की प्रवृत्ति को अपनाकर जीवन के पारमार्थिक लक्ष्य को प्राप्त कर सके |    

                                                        - डॉ. वी. के. पाठक

1 टिप्पणी: