मंगलवार, 12 अगस्त 2014

मूल्य-शिक्षा : अनिवार्य आवश्यकता



शिक्षा में विज्ञान एवं मनोविज्ञान का प्रभाव अधिक होने के कारण शोधकर्ताओं को ऐतिहासिक एवं दार्शनिक समस्याओं ने बहुत कम ध्यान आकर्षित किया है अथवा यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सायास इन समस्याओं को मात्र नीरस एवं पुस्तकीय कहकर छोड़ दिया गया है | यह दर्शन की गम्भीरता पर दृष्टिपात न करने का ही परिणाम है क्योंकि प्रत्येक समस्या के समाधान का मूल दर्शन ही है |

सम्प्रति प्रत्येक व्यक्ति स्वार्थांधता से ग्रसित है; अपने द्वारा किंचित्पि कार्य के लिए वह अपेक्षाएँ संवर्धित करने लगता है |अपेक्षाओं की पूर्ति या कमोवेश अपेक्षाओं का पूर्ण न होना मानसिक झंझावात उत्पन्न करता है | आज मानव के सीमातीत दुःख का कारण स्वयं उसके द्वारा पोषित अपेक्षाएँ हैं | माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री, गुरू-शिष्य एवं भाई-भतीजा आदि अन्य सम्बन्धों में अपेक्षाएँ बढ़ने से कटुता उत्पन्न होती है तथा शनै:-शनै: उसकी परिणति विस्फोटक रूप धारण कर लेती है |

अस्तु, संसारगत मानवीय मूल्यों का निरंतर ह्रास होता जा रहा है | हिंसा, व्यभिचार, अहंकार, छल, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या, मद, मात्सर्य, आलस्य, प्रमाद, अधर्म, लोभ, अन्याय, काम, क्रोध, आवेश, नास्तिकता, निन्दित कर्मानुष्ठान एवं क्रोधान्धता आदि अवगुणों से संलग्न हुआ मानव पृथ्वी पर भार स्वरूप है, अत: विश्व-शान्ति एवं कल्याण के लिए मूल्य-शिक्षा की आवश्यकता है | व्यक्ति में मानवीय मूल्यों के पुनर्स्थापन एवं अकरणीय क्रियाओं के मार्गांतीकरण की आवश्यकता है |

आज का शिक्षित मानव, मानव न रहकर मात्र प्राणी बनकर रह गया है, मानवीय गुणों की रिक्तता एक प्रश्न बनकर उद्वेलित कर रही है, अत: आवश्यकता है कि शिक्षा-दर्शन भी कल्याणमयी भावना से अभिभूत होकर संकीर्ण विचारों की सुदृढ़ परिधि को तोड़कर अपने में विस्तृत स्वरूप को समाहित कर ब्रहमाण्ड के समान हो जाए | मानव क्षत-विक्षत मान्यताओं के बंधन में न रहे और अपनी मृगतृष्णा को शांत कर शांति के मानसरोवर में डुबकियाँ लगाने लगे | 
    
दार्शनिक समस्याओं पर जितने बी नवीन अनुसंधान हुए हैं, उनमें से अधिकांश व्यावहारिक पक्ष की अपेक्षा पारमार्थिक पक्ष पर हुए हैं | कोई भी दर्शन केवल पारमार्थिक ज्ञान ही नहीं देता बल्कि उसके प्रत्येक पहलु में विशेष व्यावहारिकता झलकती हुई स्पष्ट दृष्टिगत होती है | अस्तु, यहाँ यह जिज्ञासा जाग्रत होना स्वाभाविक है कि कि तथ्यों को अपनाकर अखिल मानवीय स्तर पर सुखी एवं सम्पन्न जीवन की मानवीय मूल्यानुसार शिक्षा का आयोजन किया जा सकता है ?

आज मानव, मानव के लिए विश्वबंधुत्व की भावना को तिरस्कृत कर कष्ट-साध्य बन चुका है| आतंकवाद रूपी सुरसा के मुख में काल-कवलित होती मानव-जाति पाशविकता की चरमसीमा पर स्थित है | सतत होतीं नृशंस हत्याएँ मानव-जाति के लिए अभिशाप हैं| मानवीय मूल्यों की कमी से नृशंस हत्याएँ, व्यभिचार, अत्याचार, हिंसा, दुराचार, कुचक्र एवं घृणित राजनीति इत्यादि के परिणाम हमारे सम्मुख हैं|

 यह भौतिक प्रकृति (अपरा ) परमेश्वर की भिन्ना शक्ति है, इसी प्रकार जीव भी परमेश्वर की ही शक्ति का रूप हैं किन्तु वे विलग नहीं हैं, अपितु ईश्वर से नित्य सम्बन्धित हैं| इस तरह भगवान, जीव, प्रकृति, तथा काल; ये सभी परस्पर सह-सम्बन्धित हैं और सभी शाश्वत हैं लेकिन कर्म शाश्वत नहीं हैं| कर्म के फल अत्यंत पुरातन हो सकते हैं| हम अनादिकाल से शुभाशुभ कर्मफलों को भोग रहे हैं, किन्तु साथ ही हम अपने कर्मों के फलों परिवर्तित भी कर सकते हैं और यह परिवर्तन हमारे ज्ञान की पूर्णता पर निर्भर करता है|हम विविध प्रकार के कर्मों में व्यस्त रहते हैं | निसंदेह हम यह नहीं जानते कि किस प्रकार के कर्म करने से हम कर्मफल से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं|  

-डॉ. वी. के. पाठक