- डॉ. वी. के. पाठक
भारतीय संस्कृति का परिवेश अतीत काल से ही दूसरों के प्रति
आदर, सम्मान सेवा एवं सहयोग से परिनिष्ठित रहा है | ‘षोडश संस्कार’ मानव को जन्म
से मृत्यु-पर्यन्त कर्त्तव्यों के प्रति नीयत आचरण में आबद्ध कर देते हैं | माता
के गर्भ में आने से पूर्व ही बालक अनुशासित होने के लिए प्रेरित होता है | बालक
जन्म से ही माता-पिता पुनश्च अध्यापकों के आदर के प्रति समर्पित होता है | शुकसप्तति
में तत्सम्बन्धित एक निर्देशक श्लोक है, जिसमें ज्येष्ठ्जनों के आदर एवं सम्मान को
द्योतित किया गया है-
न पूजयन्ति ये पूज्यान मान्यान न मानयन्ति ये |
जीवन्ति निन्द्मानास्ते मृता: स्वर्गं न यान्ति च ||
-शुकसप्तति (१/५)
अर्थात् जो व्यक्ति अपने पूज्य जनों की पूजा नहीं करते
अर्थात् यथेष्ट आदर नहीं देते, जो अपने माननीयों को सम्मान नहीं करते, वे निन्दित
होते हुये जीते हैं और मरने के बाद स्वर्ग नहीं जाते | एतद् अनुरूप भारतीय
संस्कृति माता-पिता के आदर के प्रति सदैव से ही समर्पित रही है | माँ सभी तीर्थों
का एकात्मक रूप प्रस्तुत करती है एवं पिता सभी देवताओं का समन्वित रूप है, उनकी
पूजा (आदर) के लिए सतत रूप से सप्रयत्न सार्थक क्रियाओं का आयोजन होना चाहिए |
उक्त च-
सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमय पिता |
मातरं पितरं तस्मात् सर्व यत्नेन पूज्यते ||
उन्मीलित ज्ञान-चक्षुओं का उद्घाटन करने वाले
माता-पिता एवं अध्यापक क्रमशः सम्मान एवं पूजन के अधिकारी होते हैं | हमारी भारतीय
संस्कृति सदैव से ही उनके उन्नायक एवं ज्वाज्ल्यमान रूप की थाती रही है |
श्वेताश्वेत्तर उपनिषद् का एक श्लोक ह्रदय, मन एवं मस्तिष्क में झंझावात उत्पन्न कर
देता है कि अंततः गुरूजन क्यों सदैव से ही शिरोमणि श्रेष्ठ रहे हैं ? परन्तु
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उनकी भूमिका का तत्कालीन संदर्भों से कम आकलन नहीं किया
जा सकता | उक्त च –
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः |
गुरोर्साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः ||
-श्वेताश्वेत्तर उपनिषद्
आज स्वार्थान्धतापूर्ण जीवन में माता-पिता व अध्यापकों के
आदर एवं सम्मान के मानकों में ह्रास दृष्टिगत होता है | अंततः क्यों ? इस प्रश्न
के संदर्भ में क्या हम सभी परस्पर दोषों का आरोहण-अवरोहण न कर विचार करें तो पायेंगे
कि हम सभी दोषी हैं | आज भौतिकवादी तथा उपभोक्तावादी युग में मानव से मानव की अंत:क्रिया
समाप्त हो गयी है, उसका स्थान अलगाव ने ले लिया है | संयुक्त परिवार की अवधारणा
काल्पनिक जगत का विचारणीय इतिहास बनकर कहीं सिमटा पड़ा है | निरंतर बढ़ती भौतिकवादिता,
विलासिता,उपभोक्ता प्रवृत्ति एवं परिणामत: समयाभाव परिजनों को एक मार्ग का ‘माईलस्टोन’
बनाकर खड़ा कर देता है, जिनमें कि कुछ सम्बन्ध तो है परन्तु वे स्नेह, प्रेम एवं
स्निग्ध वात्सल्य को प्रवाहित कर अभिव्यक्त नहीं कर सकते |
यदि श्रीमद्भगवद्गीता के संदर्भ में देखा
जाए तो गीता के गुण एवं कर्म सिद्धांतों के विपरीत जाने का ही यह परिणाम दृष्टिगत
होता है | मानव, मानव सत्वगुण से विरत रजस या तमस में लिप्त है | परिणामस्वरूप
उनकी तदनुरूप क्रियाएँ सदैव तामसिक या राजसी होती जा रहीं हैं | जो उन्हें भोगविलास,
भौतिकता एवं सुरसावत बढ़ती बुराइयों की और आकर्षित करतीं हैं | जो जन-जन में विभेद
करते हैं, अपितु सभी के साथ कुत्सित एवं अनाचार से युक्त व्यवहार ही चरित्र में
परिणत करते हैं | कर्म भी गुण आधारित है, वासनाओं, इच्छाओं एवं फलापेक्षाओं से
किया गया कार्य, उन्हें अध:पतन की और आकर्षित करता है | इससे वे माता-पिता या
अध्यापक आदि किसी के भी अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं | भारतीय संस्कृति के
प्रचारित एवं सम्पोषित मूल्यों का ह्रास इसका परिणाम है कि आज प्रत्येक मानवीय
मूल्यों के विरुद्ध एक पूर्वाग्रही तथा संकुचित सोच रखता है |
भारतीय सांस्कृतिक मूल्यानुरूप शिक्षा के
साथ-साथ माता-पिता एवं अध्यापकों का यह महनीय कर्तव्य है कि वे प्रस्फुटित होते
बालकों को पुष्पवत, एक माली के सामान पल्लवित एवं पोषित करें |“सत्कारो हि
नाम सत्कारेण प्रतीष्ट प्रीतिमुत्पाद्यति |” - स्वप्नवासवदत्ता
(भाष) अर्थात् सत्कार (सम्मान) से मिलकर सत्कार अधिक प्रेम उत्पन्न
करता है |
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