सोमवार, 25 मई 2015

गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत के आविष्कारक भास्कराचार्य द्वितीय


आधी सदी से चली आ रही मैकाले शिक्षा पद्धति के
परिणामस्वरूप जब भी गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की बात की जाती है, तब हमेशा न्यूटन वाले सेब का नाम लेकर हमेशा की तरह महान सनातनी वैज्ञानिक इतिहास को नीचा दिखाने का प्रयास किया जाता  है| न्यूटन से 500 वर्ष पूर्व ही महान भारतीय गणितज्ञ, ज्योतिषी एवं खगोलविद्,  भास्कराचार्य ने गुरुत्वाकर्षण की खोज व संपूर्ण सैद्धांतिक अवधारणा प्रस्तुत कर दी थी|भास्कराचार्यजी ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ सिद्धांतशिरोमणि में  पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि “ पृथ्वी आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है और  इस वजह से आकाशीय पदार्थ पृथ्वी पर गिरता है |"
इनका जन्म 1114. . में, दक्षिण भारत के एक गाँव में हुआ था। उन्होंने ज्योतिष, खगोल व गणित का ज्ञान अपने मनीषी पिता से प्राप्त किया था|

भास्कराचार्य की सबसे अप्रतिम रचना सिद्धांतशिरोमणिनामक ग्रन्थ है एवं इस ग्रन्थ में सबसे अधिक प्रसिद्ध तथा चर्चित भाग है "लीलावती".

लीलावती, भास्कराचार्य की पुत्री का नाम था। अपनी पुत्री के नाम पर ही उन्होंने इस ग्रन्थ का नाम लीलावती रखा। लीलावती पुस्तक में पिता-पुत्री संवाद के माध्यम सरल और काव्यात्मक तरीके से गणित और खगोल शास्त्र के सूत्रों को समझाया गया है। इस ग्रन्थ में पाटीगणित (अंकगणित), बीजगणित और ज्यामिति के प्रश्न एवं उनके उत्तर हैं। प्रश्न प्रायः लीलावती को ही सम्बोधित करके पूछे गये हैं। एक महत्त्वपूर्ण बात लीलावती में एक अध्याय है जिसका नाम है कुट्टक. आज के Diophantine Equation इसी कुट्टक अध्याय पर आधारित हैं. या कह सकते है की पूरे के पूरे समीकरण को यहीं से कॉपी(नक़ल) किया गया है|

वास्तव में सिद्धांतशिरोमणिचार भागों से मिलकर बना हुआ विशाल ग्रन्थ है. जो क्रमशः

(1) लीलावती

(2) बीजगणित

(3) गोलाध्याय और

(4) ग्रहगणिताध्याय
प्रथम दो स्वतंत्र ग्रन्थ हैं तथा अंतिम दो सिद्धांतशिरोमणि के नाम से जाना जाता है |
अब मुख्य कथन पर आते है.


भास्कराचार्य ने तीसरे भाग गोलाध्याय में लिखा है -

"मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो,
विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत्,
खस्थं,गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति,
समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।" - सिद्धांतशिरोमणि (गोलाध्याय - भुवनकोश)

अर्थात् - पृथ्वी में आकर्षण (गुरुत्वाकर्षण) शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं।

यहाँ पर भास्कराचार्य ने सापेक्षता के सिद्धांत की भी एक झलक दिखा दी है जिसका वर्णन आइंस्टीन ने २० वीं सदी में जाकर किया | यह कहा जाये की विज्ञान के सारे आधारभूत आविष्कार भारत भूमि पर हमारे ऋषि मुनियों द्वारा हुए तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी|

भास्कराचार्य ने करणकौतूहल नामक एक दूसरे ग्रन्थ की भी रचना की थी। ये अपने समय के सुप्रसिद्ध गणितज्ञ थे। वे उज्जैन की वेधशाला के अध्यक्ष भी थे। उन्हें “मध्यकालीन भारत का सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ” कहा जाता है |
वे एक मौलिक विचारक भी थे। वह प्रथम गणितज्ञ थे जिन्होनें पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा था कि - "कोई संख्या जब शून्य से विभक्त की जाती है तो अनंत हो जाती है। किसी संख्या और अनंत का जोड़ भी अंनत होता है।"

इसके अलावा भास्कराचार्य ने ‘वासनाभाष्य (सिद्धान्तशिरोमणि का भाष्य) तथा भास्कर व्यवहार और भास्कर विवाह पटल नामक दो ज्योतिष ग्रंथ लिखे हैं। इनके सिद्धांत शिरोमणि से ही भारतीय ज्योतिष शास्त्र का सम्यक् तत्व जाना जा सकता है।

सर्वप्रथम इन्होंने ही अंकगणितीय क्रियाओं का अपरिमेय राशियों में प्रयोग किया। गणित को इनकी सर्वोत्तम देन चक्रीय विधि द्वारा आविष्कृत, अनिश्चित एकघातीय और वर्ग समीकरण के व्यापक हल हैं। भास्कराचार्य के ग्रंथ की अन्यान्य नवीनताओं में त्रिप्रश्नाधिकार की नई रीतियाँ, उदयांतर काल का स्पष्ट विवेचन आदि है।

भास्करचार्य को अनंत तथा कलन के कुछ सूत्रों का भी ज्ञान था। इनके अतिरिक्त इन्होंने किसी फलन के अवकल को "तात्कालिक गति" का नाम दिया और सिद्ध किया कि -

d (ज्या q) = (कोटिज्या q) . dq

जैसे की पहले ही लिख चुका है कि न्यूटन के जन्म के आठ सौ वर्ष पूर्व ही इन्होंने अपने गोलाध्याय में 'माध्यकर्षणतत्व' के नाम से गुरुत्वाकर्षण के नियमों की विवेचना की है। ये प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने दशमलव प्रणाली की क्रमिक रूप से व्याख्या की है। इनके ग्रंथों की कई टीकाएँ हो चुकी हैं तथा देशी और विदेशी बहुत सी भाषाओं में इनके अनुवाद हो चुके हैं।

इनकी पुस्तक करणकुतूहल में खगोल विज्ञान की गणना है। इसका प्रयोग आज भी पंचाग बनाने में किया जाता है.

"निश्चित रूप से गुरुत्वाकर्षण की खोज हजारों वर्षों पूर्व ही की जा चुकी थी, ‘विमान शास्त्र’ की रचना करने वाले महर्षि भारद्वाज को गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के बारे में पता न हो ये हो ही नही सकता क्योंकि किसी भी वस्तु को उड़ाने के लिए पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का विरोध करना अनिवार्य है। जब तक कोई व्यक्ति गुरुत्वाकर्षण को पूरी तरह नही जान ले उसके लिए विमान शास्त्र जैसे ग्रन्थ का निर्माण करना संभव ही नहीं  | अतएव गुरुत्वाकर्षण की खोज न्यूटन से हजारों वर्ष पूर्व ही की जा चुकी थी|

हमारी प्राचीन विद्वत परंपरा पर शंका का औचित्य ही नहीं| वर्तमान में हमें आवश्यकता है तथाकथित पाश्चात्य ज्ञान के पूर्वाग्रह से  विरत होने की|  

बुधवार, 11 मार्च 2015

व्यथित हृदय अब रोता है!

व्यथित हृदय अब रोता है!

लोकतंत्र  दे रहा दुहाई,
व्यथित हृदय अब रोता है|
आतंकभ्रष्टाचार देख
भारत सिसकी लेता है
बलिदानों की वेदी पर 
नराधम स्वप्न मजे के लेता है

श्वेतों से पा आजादी
श्याम वही सब करते हैं
नैतिकता कूच कर गई 
भ्रष्ट नेता आज पनपे हैं 
सिसकी लेती भारत माता 
उलूक खद्दर में लिपटे हैं|

जवान बलि देते सीमा पर 
वाणी हैन उनकी  विराम पाती
पूछोउन परिवारी जन से 
जिनका खोया कुल-थाती |
पेट काट परायाअपना भरते
हक छीनसमता की बातें करते
स्वार्थ-निमग्न वह सोता है
व्यथित हृदय अब रोता है!

           -डॉ. वी. के. पाठक
            

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

स्त्री-शिक्षा


स्त्री-शिक्षा; स्त्री और शिक्षा को अनिवार्य रूप से जोड़ने वाली अवधारणा है। इसका एक रूप शिक्षा में स्त्री को पुरुषों की ही तरह शामिल करने से संबंधित है। दूसरे रूप में यह स्त्री के लिए बनाई गई विशेष शिक्षा पद्धति को संदर्भित करता है। भारत में मध्य और पुनर्जागरण काल के दौरान स्त्री को पुरुषों से अलग तरह की शिक्षा देने की धारणा विकसित हुई थी। वर्तमान में यह बात सर्व मान्य है की स्त्री को भी उतना शिक्षित होना चाहिये जितना पुरुष को। यह सिद्ध सत्य है कि यदि माता शिक्षित न होगी तो देश की सन्तानों का कदापि कल्याण नहीं हो सकता।


भारत में नारियों को हर दृष्टि से पूज्य शक्तिस्वरूपा माना जाता रहा है। इतिहास के कुछ अंधकारमय कालखण्ड को छोड़कर सदा ही नारी के शिक्षा एवं संस्कार को महत्व प्रदान किया गया।

ऐसा प्रतीत होता है कि (Rigved) ऋग्वेद काल तथा उपनिषत्काल में नारीशिक्षा पूर्ण विकास पर थी। उच्च शिक्षा के लिए पुरुषों की भाँति स्त्रियाँ भी शैक्षिक अनुशासन के अनुसार ब्रह्यचर्य व्रत का पालन कर शिक्षा ग्रहण करतीं, तत्पश्चात विवाह करती थीं। ईसा से 500 वर्ष पूर्व वैयाकरण पाणिनि ने नारियों के द्वारा वेद अध्ययन की चर्चा की है। स्तोत्रों की रचना करनेवाली नारियों को ब्रह्मवादिनी कहा गया है। इन में रोमशा, लोपामुद्रा, घोषा, इंद्राणी आदि के नाम प्रसिद्ध हैं।



 इस प्रकार पुस्तक-रचना, शास्त्रार्थ तथा अध्यापनकार्य के द्वारा नारी उच्च शिक्षा का उपयोग करती थी। शास्त्रार्थप्रवीणा गार्गी का नाम जगत्प्रसिद्ध है। पंतजलि ने जिस ""शाक्तिकी"" शब्द का प्रयोग किया है वह ""भाला धारण करनेवाली"" अर्थ का बोधक है। इससे प्रतीत होता है कि नारियों को सैनिक शिक्षा भी दी जाती थी। चंद्रगुप्त के दरबार में इस प्रकार की प्रशिक्षित नारियाँ रहती थीं। प्राचीन काल में भी स्त्री पुरुष की शिक्षा में समानता के साथ विभिन्नता रहती थी। नारियों को विशेष रूप से ललितकला, संगीत, नृत्य आदि की शिक्षा दी जाती थी।

बौद्ध काल में संघ में कुछ विदुषी नारियों का होना पाया जाता है। यद्यपि नारियों के लिए संघ के नियम कठोर थे, फिर भी ज्ञान प्राप्ति के लिए अनेक नारियाँ संघ की शरण में जाती थीं।
अवस्ता और पहलवी में नारी के लिए समस्त गृहकार्यों की शिक्षा पर बल दिया है। पशुपालन, धार्मिक रीतियों का पालन आदि की व्यवस्था थी| कुरान ने बिना किसी भेदभाव के स्त्री पुरुष को ज्ञान-प्राप्ति का समानाधिकारी माना है। ईसाई धर्म आध्यात्मिक स्तर पर स्त्री पुरुष को समान देखता था किंतु उच्च शिक्षा के लिए स्त्री को "नन (भिक्षुणी)" का जीवन व्यतीत करना होता था।
मध्यकाल

इस्लाम सभ्यता के बीच परदे की प्रथा के कारण नारी-शिक्षा भारत में लुप्तप्राय हो गई। केवल अपवाद रूप से समृद्ध मुसलमान परिवार की महिलाएँ ही घर पर शिक्षा ग्रहण करती थीं। इन में नूरजहाँ, जहाँआरा तथा ज़ेबुन्निसा के नाम प्रसिद्ध हैं। हिंदुओं में बाल-विवाह, सती-प्रथा इत्यादि कारणों से बहुसंख्यक नारियाँ शिक्षा से वंचित रहीं।

19वीं शताब्दी

भारत में 19वीं शताब्दी में प्राय: सभी शैक्षिक संस्थाएँ जनता में नेतृत्व करनेवाले व्यक्तियों द्वारा संचालित थीं। इनमें कुछ अँगरेज व्यक्ति भी थे। इस समय राजा राममोहन राय ने बाल विवाह तथा सती-प्रथा को दूर करने का अथक परिश्रम किया। इन कुप्रथाओं के दूर होने से नारीशिक्षा को प्रोत्साहन मिला। ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने बंगाल में कई स्कूल लड़कियों की शिक्षा के लिए खोले। सन् 1882 के भारतीय शिक्षा आयोग (हंटर कमीशन) के अनुसार भारत सरकार की ओर से शिक्षिका प्रशिक्षण का प्रबंध हुआ। आयोग ने नारी-शिक्षा के संबंध में अनेक उत्साहवर्धक सुझाव प्रस्तुत किए किंतु धर्म-परिवर्तन का भय रहने के कारण सुझाव अधिक कार्यान्वित न हो सके। 19वीं शताब्दी के अंत तक भारत में कुल 12 कालेज, 467 स्कूल तथा 5628 प्राइमरी स्कूल लड़कियों के लिए थे। संपूर्ण भारत में छात्राओं की संख्या 4,44,470 थी। शताब्दी के अंत तक शनै: शनै: नारियाँ उच्च शिक्षा की ओर अग्रसर हो रही थीं किंतु उनमें मुसलमान छात्राओं का अभाव था।

20वीं शताब्दी

इसके प्रारंभिक वर्षों में भारत में इस बात पर ध्यान दिया गया कि नारी-शिक्षा उनके समाजिक जीवन के लिए उपयोगी होनी चाहिए क्योंकि उस समय तक जहाँ तक लिखने पढ़ने का संबंध था, लड़कों  और लड़कियों की शिक्षा में कोई अंतर न था। उच्च शिक्षा की दृष्टि से सन् 1916 महत्वपूर्ण है। इस समय दिल्ली में लेड़ी हार्डिग कालेज की स्थापना हुई तथा श्री डी.के. कर्वे ने भारतीय नारियों के लिए एक विश्वविद्यालय की स्थापना की जिस में सब से अधिक धन बंबई प्रांत के एक व्यापारी से मिलने के कारण उसकी माँ के नाम से विश्वविद्यालय का नाम श्रीमती नाथी बाई थैकरसी वीमेन्स यूनिवर्सिटी हुआ। कर्वे जी ने इस बात का अनुभव किया कि नारी तथा पुरुष की शिक्षा उनके आदर्शों के अनूकुल होनी चाहिए। इसी समय से मुसलमान नारियों ने भी उच्च शिक्षा में पदार्पण किया। नारी की प्राविधिक शिक्षा में कला, कृषि, वाणिज्य आदि का भी समावेश हुआ और नारी की उच्च शिक्षा में प्रगति हुई। धन के अभाव में लड़कियों के लिए पृथक् कॉलेज तो अधिक न खुल सके किंतु राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लेने से नारी सहशिक्षा की ओर अग्रसर हुई। सन् 1926 में एक अखिल भारतीय नारी सम्मेलन के द्वारा यह निर्णीत हुआ कि लड़कियों के लिए एक ऐसा विद्यालय खोला जाए जो पूर्ण रूप से भारतीय जीवन के आदर्शों के अनुकूल हो तथा उसका समस्त प्रबंध स्त्रियाँ स्वयं करें। अत: दिल्ली में ही लेडी इर्विन कालेज की स्थापना हुई जिसमें गृहविज्ञान तथा शिक्षिका प्रशिक्षण पर अधिक ध्यान दिया गया। सन् 1946-47 में प्राइमरी कक्षाओं से लेकर विश्वविद्यालय तक की कक्षाओं में अध्ययन करने वाली छात्राओं की कुल संख्या 41, 56, 742 हो गई। इनमें प्राविधिक एवं व्यावसायिक शिक्षा ग्रहण करनेवाली छात्राएँ भी थीं। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् यद्यपि नारी शिक्षा में पहले की अपेक्षा बहुत प्रगति हुई तथापि अन्य पाश्चात्य देशों की समानता वह न कर सकीं। इस समय से नारी शिक्षा में संगीत एवं नृत्य की विशेष प्रगति हुई। सन् 1948-49 के विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने नारीशिक्षा के संबंध में मत प्रकट करते हुए कहा कि नारी विचार तथा कार्यक्षेत्र में समानता प्रदर्शित कर चुकी है, अब उसे नारी आदर्शों के अनुकूल पृथक रूप से शिक्षा पर विचार करना चाहिए। उच्च स्तर की शिक्षा में गृह विज्ञान, गृह अर्थ शास्त्र, नर्सिंग तथा ललित कलाओं का प्रशिक्षण अवश्यक है। इसके बाद आगे चलकर हाई स्कूल की कक्षाओं में गृहविज्ञान को अनिवार्य बना दिया गया तथा पृथक रूप से भी अनेक कला केंद्र लड़कियों की शिक्षा के लिए खोले गए।
स्वतंत्रता के 10 वर्ष पश्चात् छात्राओं की कुल संख्या 87,67,912 हो गई तथा नारी का प्रवेश शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र में होने लगा। 19 मई सन् 1958 को नारी-शिक्षा की समस्याओं पर विचार करने के लिए एक राष्ट्रीय समिति नियुक्त हुई जिसने इनकी समस्याओं पर बहुत गंभीरतापूर्वक विचार करने के पश्चात् नारी के लिए उपयुक्त व्यवसायों की सूची सरकार के संमुख रखी है यद्यपि इन सभी व्यवसायों में जाने योग्य वातावरण अभी नहीं बन सका है। उच्च शिक्षा पाने के पश्चात् स्त्रियाँ अध्यापन, चिकित्सा कार्य (डाक्टरी) अथवा कार्यालयों में ही अधिकतर काम करती हैं।
इंग्लैड, जर्मनी, अमरीका जापान आदि पूँजीवादी राष्ट्रों में ही नहीं, वरन रूस, रूमानिया, यूगोस्लाविया आदि साम्यवादी राष्ट्रों में भी नारी-शिक्षा भारत की अपेक्षा बहुत आगे बढ़ गई है। यद्यपि 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में पाश्चात्य देशों में यह आशंका उत्पन्न हो गई थी कि पुरुष की प्रतिस्पर्धा में नारी अपने विकास के क्षेत्र से हटकर पुरुषजीवन को अपना रही है जो उसके लिए उपयुक्त नहीं है, किंतु अब ये राष्ट्र भी नारी की विशेष शिक्षा पर ध्यान दे रहे हैं तथा शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में उपयुक्त योग्यता प्राप्त कर वहाँ की नारी अपने सुशिक्षित राष्ट्रसमाज का निर्माण कर रही है।



मंगलवार, 12 अगस्त 2014

मूल्य-शिक्षा : अनिवार्य आवश्यकता



शिक्षा में विज्ञान एवं मनोविज्ञान का प्रभाव अधिक होने के कारण शोधकर्ताओं को ऐतिहासिक एवं दार्शनिक समस्याओं ने बहुत कम ध्यान आकर्षित किया है अथवा यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सायास इन समस्याओं को मात्र नीरस एवं पुस्तकीय कहकर छोड़ दिया गया है | यह दर्शन की गम्भीरता पर दृष्टिपात न करने का ही परिणाम है क्योंकि प्रत्येक समस्या के समाधान का मूल दर्शन ही है |

सम्प्रति प्रत्येक व्यक्ति स्वार्थांधता से ग्रसित है; अपने द्वारा किंचित्पि कार्य के लिए वह अपेक्षाएँ संवर्धित करने लगता है |अपेक्षाओं की पूर्ति या कमोवेश अपेक्षाओं का पूर्ण न होना मानसिक झंझावात उत्पन्न करता है | आज मानव के सीमातीत दुःख का कारण स्वयं उसके द्वारा पोषित अपेक्षाएँ हैं | माता-पिता, पति-पत्नी, पुत्र-पुत्री, गुरू-शिष्य एवं भाई-भतीजा आदि अन्य सम्बन्धों में अपेक्षाएँ बढ़ने से कटुता उत्पन्न होती है तथा शनै:-शनै: उसकी परिणति विस्फोटक रूप धारण कर लेती है |

अस्तु, संसारगत मानवीय मूल्यों का निरंतर ह्रास होता जा रहा है | हिंसा, व्यभिचार, अहंकार, छल, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या, मद, मात्सर्य, आलस्य, प्रमाद, अधर्म, लोभ, अन्याय, काम, क्रोध, आवेश, नास्तिकता, निन्दित कर्मानुष्ठान एवं क्रोधान्धता आदि अवगुणों से संलग्न हुआ मानव पृथ्वी पर भार स्वरूप है, अत: विश्व-शान्ति एवं कल्याण के लिए मूल्य-शिक्षा की आवश्यकता है | व्यक्ति में मानवीय मूल्यों के पुनर्स्थापन एवं अकरणीय क्रियाओं के मार्गांतीकरण की आवश्यकता है |

आज का शिक्षित मानव, मानव न रहकर मात्र प्राणी बनकर रह गया है, मानवीय गुणों की रिक्तता एक प्रश्न बनकर उद्वेलित कर रही है, अत: आवश्यकता है कि शिक्षा-दर्शन भी कल्याणमयी भावना से अभिभूत होकर संकीर्ण विचारों की सुदृढ़ परिधि को तोड़कर अपने में विस्तृत स्वरूप को समाहित कर ब्रहमाण्ड के समान हो जाए | मानव क्षत-विक्षत मान्यताओं के बंधन में न रहे और अपनी मृगतृष्णा को शांत कर शांति के मानसरोवर में डुबकियाँ लगाने लगे | 
    
दार्शनिक समस्याओं पर जितने बी नवीन अनुसंधान हुए हैं, उनमें से अधिकांश व्यावहारिक पक्ष की अपेक्षा पारमार्थिक पक्ष पर हुए हैं | कोई भी दर्शन केवल पारमार्थिक ज्ञान ही नहीं देता बल्कि उसके प्रत्येक पहलु में विशेष व्यावहारिकता झलकती हुई स्पष्ट दृष्टिगत होती है | अस्तु, यहाँ यह जिज्ञासा जाग्रत होना स्वाभाविक है कि कि तथ्यों को अपनाकर अखिल मानवीय स्तर पर सुखी एवं सम्पन्न जीवन की मानवीय मूल्यानुसार शिक्षा का आयोजन किया जा सकता है ?

आज मानव, मानव के लिए विश्वबंधुत्व की भावना को तिरस्कृत कर कष्ट-साध्य बन चुका है| आतंकवाद रूपी सुरसा के मुख में काल-कवलित होती मानव-जाति पाशविकता की चरमसीमा पर स्थित है | सतत होतीं नृशंस हत्याएँ मानव-जाति के लिए अभिशाप हैं| मानवीय मूल्यों की कमी से नृशंस हत्याएँ, व्यभिचार, अत्याचार, हिंसा, दुराचार, कुचक्र एवं घृणित राजनीति इत्यादि के परिणाम हमारे सम्मुख हैं|

 यह भौतिक प्रकृति (अपरा ) परमेश्वर की भिन्ना शक्ति है, इसी प्रकार जीव भी परमेश्वर की ही शक्ति का रूप हैं किन्तु वे विलग नहीं हैं, अपितु ईश्वर से नित्य सम्बन्धित हैं| इस तरह भगवान, जीव, प्रकृति, तथा काल; ये सभी परस्पर सह-सम्बन्धित हैं और सभी शाश्वत हैं लेकिन कर्म शाश्वत नहीं हैं| कर्म के फल अत्यंत पुरातन हो सकते हैं| हम अनादिकाल से शुभाशुभ कर्मफलों को भोग रहे हैं, किन्तु साथ ही हम अपने कर्मों के फलों परिवर्तित भी कर सकते हैं और यह परिवर्तन हमारे ज्ञान की पूर्णता पर निर्भर करता है|हम विविध प्रकार के कर्मों में व्यस्त रहते हैं | निसंदेह हम यह नहीं जानते कि किस प्रकार के कर्म करने से हम कर्मफल से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं|  

-डॉ. वी. के. पाठक