सोमवार, 9 सितंबर 2013

सहशिक्षा कब और क्यों? (आलेख)

सहशिक्षा कब और क्यों?

सहशिक्षा के सम्बन्ध में विद्वानों के विभिन्न मत हैं जिन्हें निम्न परिभाषाओं के माध्यम से समझा जा सकता है | ब्रिटेनिका विश्वकोश के अनुसार सहशिक्षा का अर्थ है- “ लड़के तथा लड़कियों को एक ही समय, एक ही स्थान पर, एक ही अधिकारी द्वारा, एक ही शासन के अधीन, एक ही तरीके से, एक ही पाठ्यक्रम पढ़ाया जाय |” माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) के शब्दों में “समता के आधार पर एक ही संस्था में लड़के एवं लड़कियों को शिक्षा देना सहशिक्षा कहलाता है |” इस प्रकार कहा जा सकता है कि सहशिक्षा संस्थाओं में लड़के एवं लड़कियाँ साथ-साथ पाठ्यचर्या को पूर्ण करते हैं |
सहशिक्षा व्यवस्था भारत के लिये नई नहीं है | वैदिक काल में लड़के एवं लड़कियाँ गुरू के आश्रम में एक साथ शिक्षा ग्रहण करते थे | स्वतंत्रता के पश्चात् सहशिक्षा संस्थाओं में द्रुतगति से  विकास हुआ है, विशेषकर पब्लिक स्कूल प्रणाली में | विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1948-49) का विचार था कि लोगों की राय ऐसी मालूम होती है कि तेरह या चौदह वर्ष की आयु से लगभग अठारह वर्ष की आयु तक लड़के-लड़कियों के विद्यालय अलग-अलग हों | आयोग ने स्पष्ट किया कि यह स्पष्ट नहीं होता कि इस विचारधारा का आधार रीति-रिवाज हैं अथवा अनुभव | आयोग कि अनुशंसाओं के अनुसार, कॉलेज में प्रवेश की आयु लगभग अठारह वर्ष हो | अतः कॉलेज में सहशिक्षा हो सकती है, जैसा कि आज तक मेडिकल कॉलेज में होता है | इस स्तर पर अनावश्यक रूप से व्यय की वृद्धि होगी | लड़के-लड़कियों के लिये अलग-अलग कॉलेज बनाने में दोहरे उपकरणों की आवश्यकता होगी, जो अभी पर्याप्त नहीं हैं और साथ ही साथ इनका भार हमारे सीमित साधनों पर पड़ेगा | लड़कियों के अलग कालेजों में साधारणतया हीन उपकरण, अपेक्षाकृत कम योग्यता वाले अध्यापक और अनुपयुक्त विद्यालय भवन होते हैं | यथासंभव कॉलेज-स्तर पर सहशिक्षा को बढ़ावा दिया जाए |
      माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) का विचार है- “ऐसा जान पड़ता है कि सहशिक्षा के सम्बन्ध में हमारे स्कूलों कि शिक्षा प्रणाली उस समुदाय कि सामाजिक पद्धति से आगे नहीं बढ़ सकती है जिसमें कि स्कूल स्थापित किये जाने चाहिए | हमारा विचार है कि जिन स्थानों पर संभव हो वहाँ लड़कियों के पृथक् स्कूल हों क्योंकि ये मिश्रित स्कूलों की अपेक्षा उनकी शारीरिक, सामाजिक और मानसिक विशेषताओं के विकास के लिये अधिक अवसर प्रदान करेंगे और सभी राज्यों को ऐसे स्कूल पर्याप्त संख्या में खोलने चाहिए | परन्तु ये उन लड़कियों के लिये खोले जाने चाहिए, जिनके अभिभावकों को मिश्रित स्कूलों की सुविधाओं से लाभ उठाने में आपत्ति हो |” इसी प्रकार शिक्षा आयोग (1964-66) ने सहशिक्षा के सम्बन्ध में अपने सुझाव देते हुए कहा कि  “कॉलेज के स्तर पर स्थानीय ऐतिहासिक परम्पराएँ और सामान्य सामाजिक पृष्ठभूमि यह निर्धारित करती हैं कि वहाँ महिलाओं के लिये पृथक् कॉलेज हों या मिश्रित कॉलेज हों | शिक्षा के स्तर के लिये सहशिक्षा की समरूपी नीति आवश्यक नहीं है, परिस्थिति प्रत्येक राज्य में भिन्न है |...........अतएव, इस स्तर पर सहशिक्षा सम्बन्धी नीति का निर्णय प्रत्येक राज्य की सरकार को करना होगा |” पूर्व स्नातक स्तर पर यदि स्थानीय मांग हो तो महिलाओं के लिये पृथक् कॉलेज स्थापित किये जा सकते हैं | शिक्षा आयोग के विचार में स्नातकोत्तर स्तर पर महिलाओं के लिये पृथक् शिक्षा संस्थाओं का कोई औचित्य नहीं है |
       सहशिक्षा के समर्थन में तर्क दिया जाए तो तीन तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं | प्रथम, आर्थिक दृष्टिकोण से देखें तो लड़कों की तुलना में कम जनसंख्या होने के कारण अलग स्कूल या कॉलेज खोलना आर्थिक दृष्टि से हानिकारक है | विशेषकर यह परिस्थिति ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों में बहुत ही गंभीर समस्याएँ उत्पन्न कर देती हैं | वही भवन, वही साधन-सामग्री, पुस्तकालय तथा अन्य सुविधाएँ लड़कियों के लिये भी प्रयुक्त की जा सकती हैं | अतः अतिरिक्त वित्तीय भार और अनावश्यक वृद्धि अपव्ययपूर्ण होगी | द्वितीय दृष्टिकोण मनोवैज्ञानिक है, जिसमें नारी-शिक्षा की राष्ट्रीय समिति का कथन है –“पारस्परिक सम्पर्क जिज्ञासा की उस भावना का अंत कर देता है, अजनबीपन के कारण उत्पन्न हो जाती है जो लिंगों के अलगाव और पृथकता की विशेषता है |” ऐसा समझा जाता है कि केवल साथ रहने से ही प्राकृतिक भावनाओं की समझ व आत्मविश्वास की भावना आ सकती है | एक विद्वान लेखक का मत है-“भावी माताओं को ऐसा नहीं होना चाहिए कि वे आँसू भरकर कहें कि वे पुरुषों को समझती ही नहीं |” ऐसा माना जाता है कि सहशिक्षा के द्वारा यौन प्रवृत्ति को उचित मार्ग दिया जा सकता है | तृतीय कारक के रूप में भावनात्मक संतुलन को प्रस्तुत किया जा सकता है | ऐसा समझा जाता है कि पुरूष एक हिंसक पशु है और वह नारी के कारण सीमाओं को ध्वस्त नहीं कर पाता है | लड़के–लड़कियाँ परस्पर गुण ग्रहण कर सकते हैं- लड़के, लड़कियों से धैर्य और लड़कियाँ, लड़कों से आत्मनिर्भरता | इस प्रकार लड़के अधिक सुधरे बनते हैं तथा लड़कियाँ कम लज्जावती और नाजुक बनतीं हैं |
      सहशिक्षा के विरोध में अनेकों विद्वानों ने स्वर मुखरित किया है | विरोध स्वरूप अनेकों तथ्य प्रस्तुत किये हैं | मनोवैज्ञानिक स्तर पर- प्रथम, सहशिक्षा बालक की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करती है | द्वितीय, सहशिक्षा संस्थाओं में कामुकता की भावना का विकास होता है | सहशिक्षा संस्थाओं में कई प्रकार का यौन उल्लघन होना पाया गया है | नैतिक स्तर पर नये रोमांस या दुस्साहस की भावना उत्पन्न होने का भय बना रहता है | एक नवयुवक नैतिकता की उपेक्षा करके पतन की और अग्रसर हो सकता है | इसी प्रकार भावनात्मक असंतुलन सहशिक्षा संस्थाओं में पाया जाता है- सहशिक्षा संस्थाओं से कई बार नवयुवक एवं नवयुवतियाँ भावुकता की दृष्टि से दीवालिए होकर निकलते हैं | वे अनेकों प्रकार के मानसिक रोगों से पीड़ित हो जाते हैं | कई बार सहशिक्षा संस्थाओं में अध्यापक एवं विद्यार्थी लिंग-भावना के आकर्षण से ग्रस्त हो जाते हैं | आत्माभिव्यक्ति के अवसरों का अभाव पाया जाता है | साझे पाठ्यक्रम में छात्राओं को उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप क्रियाओं का प्रायः अभाव पाया जाता है | सामाजिक स्तर पर भी सहशिक्षा को आदर्श पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व की नैतिक संहिता का उल्लंघन माना जाता है |
       विभिन्न मतों एवं तथ्यों के विश्लेषण के उपरांत कहा जा सकता है कि आरंभिक स्तर पर सहशिक्षा हो | इस स्तर पर सभी का मतैक्य है कि 6-11 आयुवर्ग के लड़के-लड़कियों में किसी प्रकार के खतरे एवं दुष्परिणाम का भय नहीं रहता | माध्यमिक स्तर पर सहशिक्षा नहीं होनी चाहिये- एक प्राचीन कहावत है कि घी एवं अग्नि को साथ-साथ रखा जाए तो प्रज्वलन अवश्यम्भावी है | यही कारक युवक एवं युवतियों की 11-18 वर्ष की आयु में हुए शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों के कारण होते हैं | विश्वविद्यालय स्तर पर सहशिक्षा का प्रावधान होना चाहिए, क्योंकि अधिकांशतः 18 वर्ष की आयु के बाद वे पूर्णतः परिपक्व हो जाते  हैं | इस अवस्था में सहशिक्षा के सम्बन्ध में कम वाद-विवाद है |  


                     डॉ. वी. के पाठक

                     डॉ. सुरत प्यारी पाठक 

बुधवार, 4 सितंबर 2013

पथ पर चलते एक जन को देखा (कविता)

पथ पर चलते एक जन को देखा

पथ पर चलते एक जन को देखा
जिज्ञासु उस हिय को देखा
प्रवाहहीन मुरझाये स्वर-सा
संत्रासित बिन नीर निर्झर का |
पथ पर चलते एक जन को देखा.....
श्लाघनीय उन पद सुमनों को
दृश्य देख हुआ मन हर्षित-सा
पथ पर चलते एक जन को देखा.....
सहसा
सुरसावत् देख तम का आगार
प्रतिपल श्वासोच्छवास बढ़े अवसाद
संपीडित कर नव निर्मित स्वर
शारदे सुत का नव प्रसाद
पथ पर चलते एक जन को देखा.....
संवाहक वह ज्ञान-निर्झर का |
लक्ष्य-भेद नव-निर्झर आया
विलुप्त हुआ तम सर्व जन उर का
सतत ईप्सित फल कामना यही है
गुरूर्ब्रह्मा वाक्य हो जग का |
नमन करूँ, शत-शत प्रणाम ||
पथ पर चलते एक जन को देखा.....


- डॉ. वी. के. पाठक 
(शिक्षक दिवस की पूर्व संध्या पर)





मंगलवार, 3 सितंबर 2013

लिंगीय पक्षपात ग्रामीण विकास में बाधक (आलेख)

लिंगीय पक्षपात ग्रामीण विकास में बाधक 


डॉ. वी. के. पाठक
साभार: समाज कल्याण (वर्ष 47, अंक 5, दिसम्बर 2001) से पुनर्प्रकाशित 

राजनीति एवं प्रशासन में महिलाएं (आलेख)

राजनीति एवं प्रशासन में महिलाएं (आलेख) 




डॉ. वी. के. पाठक

साभार: समाज कल्याण (वर्ष 47, अंक 1, अगस्त 2001) से पुनर्प्रकाशित 

बालिका शिक्षा का महत्व (आलेख)

बालिका शिक्षा का महत्व (आलेख)


          -डॉ. वी. के. पाठक
साभार: समाज कल्याण (वर्ष 46, अंक 1, अगस्त 2000) से पुनर्प्रकाशित 

कृषि क्षेत्र और महिलाएं (आलेख)

कृषि क्षेत्र और महिलाएं 


                         -डॉ. वी. के. पाठक
साभार: समाज कल्याण (वर्ष 45, अंक 1, अगस्त 1999) से पुनर्प्रकाशित 

बाल श्रमिक और सर्वोच्च न्यायालय का फैसला (आलेख)

बाल श्रमिक और सर्वोच्च न्यायालय का फैसला



साभार: समाज कल्याण (वर्ष 44 , अंक 10, मई 1999) से पुनर्प्रकाशित 

जनसंख्या वृद्धि से पर्यावरणीय ह्रास (आलेख)

जनसंख्या वृद्धि से पर्यावरणीय ह्रास (आलेख) 





                      डॉ. वी. के. पाठक
          साभार: समाज कल्याण (वर्ष 41, अंक 11, जून 1996) से पुनर्प्रकाशित 

शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

चिट्ठी (कहानी)




                                                                                                     -डॉ. वी. के. पाठक
                                                                                     (साभार: समाज कल्याण, मई,1998 से पुनर्प्रकाशित)

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

सच्ची भारतीयता के संस्कार दें नौनिहालों को (आलेख)

सच्ची भारतीयता के संस्कार दें नौनिहालों को

किसी भी राष्ट्र के सर्वतोन्मुखी विकास के लिये तथा आजादी की शमा को रोशन रखने के लिये यह अत्यंत आवश्यक है कि बच्चों में देश-प्रेम की भावना विकसित की जाए| आज के बच्चे ही कल देश के भावी कर्णधार होंगे | घर ही बच्चों की प्राथमिक शाला है | अतः माता-पिता का यह परम कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों में देश-प्रेम की भावना पैदा करें, जिस तरह हम अपने माता-पिता, भाई-बहन तथा परिवारीजनों से प्रेम करते हैं, उसी प्रकार देश के प्रति अनुराग भी स्वाभाविक भावना है, सिर्फ़ जरूरत है, उसे विकसित करने की |
जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो उसके अहित की बात हम स्वप्न में भी नहीं सोच सकते | यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि देश के प्रति प्रेम ही उन्हें इसका अहित करने से रोकेगा | फिर न आतंकवाद होगा, न उग्रवाद | भारत माता के प्रति श्रद्धा का भाव देश-वासियों में एक होने एवं सब भेदों को भूलकर एक मातृभूमि की सन्तान होने का प्रेम जगाता है |
रीति-रिवाज, धर्म, उपासना, भाषा-वेशभूषा के भेदों के विद्यमान होने पर भी राष्ट्र के सम्मान की भावना पारंपरिक प्रेम व सद्भावों को विकसित करती है |
बच्चों के कोमल मन पर सर्वाधिक प्रभाव माता-पिता के आचरण का पड़ता है | भाषण देने की अपेक्षा हमारे व्यवहार से वे अधिक सीखते हैं | हमारे मन में यदि देश-परम की भावना है तो स्वभाविक रूप से वे हमारे बच्चों में भी पनपेगी | कितने घरों में आज हमारी गौरवशाली संस्कृति का गुणगान व अनुसरण होता है? कितने ऐसे घर हैं जहाँ ‘युग’ अथवा ‘स्वराज’ जैसे धारावाहिकदेखे जाते हैं ? बच्चों में देश के प्रति प्रेम व सम्मान विकसित करने के लिये कुछ सुझाव हैं-
१.       भूलकर भी बच्चों के सामने देश की बुराई न करें |
२.       रेडियो तथा दूरदर्शन पर देशभक्ति गीत व धारावाहिक सुनें व देखें तथ बचों को भी प्रेरणा दें |
३.       स्वतंत्रता-सेनानियों के चित्र घर में टाँगें तथा स्वतंत्रता का महत्व बतलाएँ |
४.       महापुरुषों की कहानियाँ उन्हें बताएँ | महापुरुषों की जीवनियाँ तथा उनसे सम्बन्धित साहित्य लाकर दें |
५.       राष्ट्रीय ध्वज, गान या गीत एवं दिवस का महत्व एवं सम्मान बताएँ |
६.       बच्चों को स्वदेशी चीजों को अपनाने की सलाह दें | विदेशों के सव्ज बाग़ न दिखाएँ क्योंकि “ लाख लुभाये महल पराये, अपना घर फिर अपना घर है|”


डॉ. वी. के. पाठक

साभार: ‘मानव कल्याण’ (अंक १, अप्रैल २०००) से पुनर्प्रकाशित      

रविवार, 25 अगस्त 2013

मैं एक शिक्षक हूँ ! (कविता)

मैं एक शिक्षक हूँ !

मैं एक शिक्षक हूँ !
मैं राष्ट्र विधाता हूँ!
राजनीति एवं राजनीतिज्ञों से परे
सामाजिक प्रगाढ़ता को बढा रहा हूँ
भावी कर्णधारों के निर्माण कारखाने में
यंत्रवत अग्रसर हो रहा हूँ
संप्रति.............
अपने नीड़ में
स्नेह-प्राप्ति को आतुर |
अज्ञानांधकार का तिरस्कार करने वाला
मैं स्वयं तिमिर मैं विलीन हो रहा हूँ !
मैं एक शिक्षक हूँ !
संप्रति एकलव्यों का सृजन करना होगा,
वही मेरा एकांतिक कृत–संकल्प लक्ष्य होगा|
किंकर्तव्यविमूढ़ जनों के लिये
मुझे सन्मार्ग खोजना होगा
छिद्रान्वेषियों  का मान-मर्दन तत्क्षण करना होगा
तब कहीं
मुझे नवोदित धनुर्धारी अर्जुन मिलेंगे
सहस्त्रबाहु-सम अज्ञानांधकार का
पटाक्षेप करना होगा|
तब मुझे .....
सद्य-प्रसूत रस-प्लावित फल प्राप्त होगा
सृजनात्मकता का मूल्य यही होगा|
क्योंकि मैं एक शिक्षक हूँ !

-    डॉ. वी. के. पाठक
(साभार: प्रेरणा,2009 से पुनर्प्रकाशित)


गुरुवार, 15 अगस्त 2013

व्यथित हृदय अब रोता है! (कविता)

व्यथित हृदय अब रोता है!

लोकतंत्र  दे रहा दुहाई,
व्यथित हृदय अब रोता है|
आतंक, भ्रष्टाचार देख
भारत सिसकी लेता है
बलिदानों की वेदी पर 
नराधम स्वप्न मजे के लेता है

' श्वेतों ' से पा आजादी
' श्याम ' वही सब करते हैं
नैतिकता कूच कर गई 
भ्रष्ट नेता आज पनपे हैं 
सिसकी लेती भारत माता 
उलूक खद्दर में लिपटे हैं|

जवान बलि देते सीमा पर 
वाणी है, न उनकी  विराम पाती
पूछो, उन परिवारी जन से 
जिनका खोया कुल-थाती |
पेट काट पराया, अपना भरते
हक छीन, समता की बातें करते
स्वार्थ-निमग्न वह सोता है
व्यथित हृदय अब रोता है!

           -डॉ. वी. के. पाठक
               (स्वतंत्रता दिवस पर व्यक्त भावावेग)