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बुधवार, 16 अक्तूबर 2013

शिक्षक : राष्ट्र-विधाता एवं राष्ट्र-निर्माता

शिक्षक : राष्ट्र-विधाता एवं राष्ट्र-निर्माता (आलेख)

गुरूर्ब्रह्मा  गुरूर्विष्णुः  गुरूर्देवो  महेश्वरः |
गुरोर्साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः ||
-श्वेताश्वेत्तर उपनिषद्
प्राचीन काल में गुरू के प्रति उज्ज्वल भावों का समन्वय था | गुरू ब्रह्मा है, विष्णु है, महेश्वर है | वह समस्त ब्रह्मांड है | उसे प्रणाम है | यह श्लोक उस चरित्र के बारे में बातलाता है, जो मनुष्यों के व्यक्तित्व का निर्माण करता है | राष्ट्र का निर्माता, शिक्षा-पद्धति की आधार-शिला, समाज को गति प्रदान करने वाला शिक्षक ही है | शिक्षक देश की संस्कृति का निर्माता है और देश के सांस्कृतिक गौरव को अमर बनाए रखने में उनका महत्वपूर्ण हाथ होता है | हमारी संस्कृति का परिचय भावी नागरिकों को अध्यापक ही देता है | समाज में विनम्रता और शिष्टता का पाठ सिखाया जाता था, बल्कि अनेक प्रकार के दुर्व्यसनों से दूर रहने और भोगेश्वर्य के प्रति वितृष्णा भी अनुभव होने लग जाती थी | उस समय शिक्षकों एवं विद्यार्थियों के मध्य अपनत्व एवं सौहार्द्र का सम्बन्ध रहता था | छात्र अपने गुरू का पूर्ण सम्मान करते थे और उनके हर आदेश का पालन करे में विलम्ब नहीं करते थे | शिक्षक भी उन्हें सच्चे हृदय से शिक्षा प्रदान करते थे | इस तथ्य को जानते हुए तत्कालीन समाज और राज्य भी शिक्षकों का अधिकतम सम्मान करते थे और यथासंभव उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये तत्परता दिखाई जाती थी | किन्तु आज यह स्थिति नहीं रही है | आज शिक्षा का दान शिक्षक की आजीविका का साधन बन गया है और विद्यार्थियों में शिक्षकों के प्रति श्रद्धा का अभाव है | समाज ने शिक्षक के प्रति उपेक्षा ही दिखाई देती है | राज्य तो शिक्षकों का स्वामी बना हुआ है | इस स्थिति में शिक्षक स्वयं को कुंठा-ग्रस्त पायें तो आश्चर्य नहीं | फिर सच्ची शिक्षा का लक्ष्य तो बहुत ऊँचा होता है | अतः शिक्षक के लिये आवश्यक है कि वह कुंठाओं को दूर करे, तभी वह सच्ची शिक्षा प्रदान कर सकता है |    
       यह सच्ची शिक्षा क्या है ? इस सम्बन्ध में महात्मा गाँधी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों पर ध्यान देने की आवश्यकता है | “सा विद्या या विमुक्तये” इस प्राचीन कालीन ऋषि वाक्य की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा- “जो चित्त को शुद्ध न करे, मन तथा इन्द्रियों पर संयम न सिखाए, निर्भयता एवं स्वावलंबन उत्पन्न न करे, जीवन-निर्वाह का साधन न बताये और गुलामी से छूटने तथा स्वतंत्रता में रहने की सामर्थ्य तथा उत्साह उत्पन्न न करे, उस शिक्षा में चाहे कितनी जानकारी का खजाना या तार्किक पांडित्य उपलब्ध हो, वह शिक्षा नहीं है, यदि है तो अधूरी शिक्षा है |” प्रत्येक बालक संस्कार रूप में कुछ प्रतिभा-शक्ति लिये हुए संसार में जन्म लेता है | उस जन्मजात प्रतिभा एवं शक्ति को उभारकर स्वस्थ रूप प्रदान माता-पिता एवं शिक्षक का परम कर्तव्य है | वे चाहें तो सावधानी एवं बुद्धिमत्ता से उपयुक्त वातावरण एवं विचार-संजीवनी शक्ति रूपी उर्वरता प्रदान कर महाप्राण शक्ति का निर्माण कर सकते हैं, अन्यथा अपनी उपेक्षा द्वारा उसे स्वच्छन्दतापूर्ण व्यवहार से दानव निर्माण में सहायक होंगे |
       सत्य-विद्या के स्वरूप और ध्येय को पहचान कर शिक्षक और विद्यार्थी शिक्षा-क्रम को अपनाएँ तो निश्चय ही मानव की स्वार्थ-परायण पाशविक वृत्तियों का दमन होकर, विश्व-प्रेम की स्थापना संभव हो सकती है | योगी अरविन्द ने शिक्षकों को राष्ट्र की संस्कृति का चतुर माली कहा है | वे संस्कारों की जड़ों को खाद देते हैं तथा अपने श्रम से सींचकर महाप्राण शक्ति का निर्माण करते हैं | विश्वकवि टैगोर ने विद्यालयों को मानवता का केंद्र कहकर संबोधित किया है | इसका आशय यही है कि भारतीय परम्परा में हुए आत्मदर्शी योगियों एवं साहित्य निर्माताओं की सूक्ष्म-दृष्टि पर आधारित जीवन की जो मान्यताएँ हमारे पथ-प्रदर्शन हेतु उपलब्ध हैं, उन्हें ह्रदय में स्थान देकर हमारा शिक्षक मनोवैज्ञानिक ढंग से और परिस्थितियों के अनुरूप शिक्षा को ढालकर विद्यार्थियों को विद्या का दान करें, तभी उन्नतिशील सुख-समृद्धि से पूर्ण स्पृहणीय समाज की रचना हो सकती है |
       वस्तुतः शिक्षक वह प्रकाश-पुंज है, जो अपनी आत्मा की ज्योति को समाज के मानस में व्याप्त कर अपने व्यक्तित्व की आभा से अखिल राष्ट्र को प्रदीप्त कर सकता है | वही शिक्षक यदि प्रमाद करे, तो राष्ट्र को अधःपतन की ओर ले जाने में सहायक हो सकता है | शिक्षक समाज से अज्ञानांधकार का हरण करने वाला प्रकाश-स्तंभ है | शिक्षक वह सर्वशक्ति सम्पन्न व्यक्तित्व है, जो प्राणिमात्र के उत्कर्ष और कल्याण के लिये अपना समस्त जीवन समर्पित कर देता है | उसके इस समर्पण में ही समाज व राष्ट्र का कल्याण निहित है | शिक्षक नैतिक, आध्यात्मिक, मानसिक तथा भौतिक शक्तियों का अथाह भंडार होता है | उसमें अदम्य राष्ट्र-निर्माण शक्ति केंद्रीभूत रहती है और उसमें मानवता का विकास करने की अनुपम क्षमता भी होती है, अपनी इसी शक्ति और क्षमता का सदुपयोग करके ही शिक्षक सुन्दर समाज की रचना कर सकता है और इसके विपरीत उसकी असावधानी से समाज का पतन अवश्यंभावी है |
       शिक्षक तथा समाज का घनिष्ठ सम्बन्ध है | शिक्षक के विचार, मन:स्थिति, आचरण और व्यवहार ज्ञात एवं अज्ञात रूप से समाज को प्रभावित करते हैं | शिक्षक का चरित्र विद्यार्थी तथा समाज के लिये आचरण की पाठशाला है | कक्षा में दिए हुए वक्तव्य एवं अध्यापन से कहीं अधिक प्रभाव उनके निजी स्वभाव, प्रकृति और आचरण का विद्यार्थी प्रभाव परिलक्षित होता है | इसलिए कक्षा में पाठ्यपुस्तक पढ़ाने के साथ-साथ अध्यापक को अपने आचरण एवं व्यवहार के प्रति सतर्क होना वांछनीय है | महात्मा गाँधी आचरणहीन ज्ञान को सुगंधि में लिपटे हुए शव के समान समझते थे | वास्तव में मनुष्य की महत्ता उसके उत्तम चरित्र में है, यदि अध्यापक के ह्रदय में सच्चे अर्थों में अच्छे समाज के निर्माण की आकांक्षा है, तो निश्चय ही वह अपना चरित्र उन आदर्शों में व्यवस्थित करने के लिये प्रयत्नशील होगा, जिनसे वह समाज को परिवर्तित करना चाहता है | उसके हाथ में विद्यार्थी मण्डल की महान शक्ति है, जिसके माध्यम से वह समाज की पुन: रचना कर सकता है|
       हुमायूँ कबीर के अनुसार “शिक्षक राष्ट्र के भाग्य निर्णायक हैं यह कथन प्रत्यक्ष रूप से सत्य प्रतीत होता है, परन्तु अब इस बात पर अधिक बल देने की आवश्यकता है कि शिक्षक ही शिक्षा के पुनर्निर्माण की महत्वपूर्ण कुँजी है | यह शिक्षक वर्ग कि योग्यता ही है, जो कि निर्णायक है |” शिक्षक को ईश्वर के समकक्ष माना जाता था | इस विषय में एस. बाल कृष्ण जोशी का कथन उल्लेखनीय है | उनके शब्दों में, “एक सच्चा शिक्षक धन के अभाव में धनी होता है, उसकी सम्पत्ति का विचार बैंक में जमा धन से नहीं किया जा सकता |” शिक्षक ही विद्यालय तथा शिक्षा-पद्धति की वास्तविक गत्यात्मक शक्ति है | शिक्षक ही वह शक्ति है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आने वाली संततियों पर अपना प्रभाव डालती है | शिक्षक ही राष्ट्रीय तथा भौगोलिक सीमाओं को अतिक्रमित कर विश्व-व्यवस्था तथा मानव जाति को उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है | इस प्रकार शिक्षक का महत्व समाज तथा शिक्षा-व्यवस्था दोनों में ही स्पष्ट है | वस्तुत: शिक्षक उन भावी नागरिकों का निर्माण करता है, जिनके ऊपर राष्ट्र के उत्थान का भर है | इस संदर्भ में सैयदेन कहते हैं – “हमें यह नहीं भूलना चाहिए शिक्षण एक उद्दात व्यवसाय है और मानव-इतिहास की महानतम तथा श्रेष्ठतम विभूतियों ने इस व्यवसाय को अपनाया था, क्योंकि सभी युगों में समस्त महान धार्मिक नेता तथा सुधारक – बुद्ध, कन्फ्यूशियस, सुकरात, मुहम्मद, गुरू नानक, कबीर साहब आदि इस शब्द के सच्चे अर्थ में मानव-जाति के शिक्षक थे |”
                                                      
                                                    डॉ. वी. के. पाठक
                         साभार : डी.ई.आई. पत्रिका (2000-01) से पुनर्प्रकाशित   
         

सोमवार, 9 सितंबर 2013

सहशिक्षा कब और क्यों? (आलेख)

सहशिक्षा कब और क्यों?

सहशिक्षा के सम्बन्ध में विद्वानों के विभिन्न मत हैं जिन्हें निम्न परिभाषाओं के माध्यम से समझा जा सकता है | ब्रिटेनिका विश्वकोश के अनुसार सहशिक्षा का अर्थ है- “ लड़के तथा लड़कियों को एक ही समय, एक ही स्थान पर, एक ही अधिकारी द्वारा, एक ही शासन के अधीन, एक ही तरीके से, एक ही पाठ्यक्रम पढ़ाया जाय |” माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) के शब्दों में “समता के आधार पर एक ही संस्था में लड़के एवं लड़कियों को शिक्षा देना सहशिक्षा कहलाता है |” इस प्रकार कहा जा सकता है कि सहशिक्षा संस्थाओं में लड़के एवं लड़कियाँ साथ-साथ पाठ्यचर्या को पूर्ण करते हैं |
सहशिक्षा व्यवस्था भारत के लिये नई नहीं है | वैदिक काल में लड़के एवं लड़कियाँ गुरू के आश्रम में एक साथ शिक्षा ग्रहण करते थे | स्वतंत्रता के पश्चात् सहशिक्षा संस्थाओं में द्रुतगति से  विकास हुआ है, विशेषकर पब्लिक स्कूल प्रणाली में | विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1948-49) का विचार था कि लोगों की राय ऐसी मालूम होती है कि तेरह या चौदह वर्ष की आयु से लगभग अठारह वर्ष की आयु तक लड़के-लड़कियों के विद्यालय अलग-अलग हों | आयोग ने स्पष्ट किया कि यह स्पष्ट नहीं होता कि इस विचारधारा का आधार रीति-रिवाज हैं अथवा अनुभव | आयोग कि अनुशंसाओं के अनुसार, कॉलेज में प्रवेश की आयु लगभग अठारह वर्ष हो | अतः कॉलेज में सहशिक्षा हो सकती है, जैसा कि आज तक मेडिकल कॉलेज में होता है | इस स्तर पर अनावश्यक रूप से व्यय की वृद्धि होगी | लड़के-लड़कियों के लिये अलग-अलग कॉलेज बनाने में दोहरे उपकरणों की आवश्यकता होगी, जो अभी पर्याप्त नहीं हैं और साथ ही साथ इनका भार हमारे सीमित साधनों पर पड़ेगा | लड़कियों के अलग कालेजों में साधारणतया हीन उपकरण, अपेक्षाकृत कम योग्यता वाले अध्यापक और अनुपयुक्त विद्यालय भवन होते हैं | यथासंभव कॉलेज-स्तर पर सहशिक्षा को बढ़ावा दिया जाए |
      माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) का विचार है- “ऐसा जान पड़ता है कि सहशिक्षा के सम्बन्ध में हमारे स्कूलों कि शिक्षा प्रणाली उस समुदाय कि सामाजिक पद्धति से आगे नहीं बढ़ सकती है जिसमें कि स्कूल स्थापित किये जाने चाहिए | हमारा विचार है कि जिन स्थानों पर संभव हो वहाँ लड़कियों के पृथक् स्कूल हों क्योंकि ये मिश्रित स्कूलों की अपेक्षा उनकी शारीरिक, सामाजिक और मानसिक विशेषताओं के विकास के लिये अधिक अवसर प्रदान करेंगे और सभी राज्यों को ऐसे स्कूल पर्याप्त संख्या में खोलने चाहिए | परन्तु ये उन लड़कियों के लिये खोले जाने चाहिए, जिनके अभिभावकों को मिश्रित स्कूलों की सुविधाओं से लाभ उठाने में आपत्ति हो |” इसी प्रकार शिक्षा आयोग (1964-66) ने सहशिक्षा के सम्बन्ध में अपने सुझाव देते हुए कहा कि  “कॉलेज के स्तर पर स्थानीय ऐतिहासिक परम्पराएँ और सामान्य सामाजिक पृष्ठभूमि यह निर्धारित करती हैं कि वहाँ महिलाओं के लिये पृथक् कॉलेज हों या मिश्रित कॉलेज हों | शिक्षा के स्तर के लिये सहशिक्षा की समरूपी नीति आवश्यक नहीं है, परिस्थिति प्रत्येक राज्य में भिन्न है |...........अतएव, इस स्तर पर सहशिक्षा सम्बन्धी नीति का निर्णय प्रत्येक राज्य की सरकार को करना होगा |” पूर्व स्नातक स्तर पर यदि स्थानीय मांग हो तो महिलाओं के लिये पृथक् कॉलेज स्थापित किये जा सकते हैं | शिक्षा आयोग के विचार में स्नातकोत्तर स्तर पर महिलाओं के लिये पृथक् शिक्षा संस्थाओं का कोई औचित्य नहीं है |
       सहशिक्षा के समर्थन में तर्क दिया जाए तो तीन तथ्य प्रस्तुत किये जा सकते हैं | प्रथम, आर्थिक दृष्टिकोण से देखें तो लड़कों की तुलना में कम जनसंख्या होने के कारण अलग स्कूल या कॉलेज खोलना आर्थिक दृष्टि से हानिकारक है | विशेषकर यह परिस्थिति ग्रामीण एवं पिछड़े क्षेत्रों में बहुत ही गंभीर समस्याएँ उत्पन्न कर देती हैं | वही भवन, वही साधन-सामग्री, पुस्तकालय तथा अन्य सुविधाएँ लड़कियों के लिये भी प्रयुक्त की जा सकती हैं | अतः अतिरिक्त वित्तीय भार और अनावश्यक वृद्धि अपव्ययपूर्ण होगी | द्वितीय दृष्टिकोण मनोवैज्ञानिक है, जिसमें नारी-शिक्षा की राष्ट्रीय समिति का कथन है –“पारस्परिक सम्पर्क जिज्ञासा की उस भावना का अंत कर देता है, अजनबीपन के कारण उत्पन्न हो जाती है जो लिंगों के अलगाव और पृथकता की विशेषता है |” ऐसा समझा जाता है कि केवल साथ रहने से ही प्राकृतिक भावनाओं की समझ व आत्मविश्वास की भावना आ सकती है | एक विद्वान लेखक का मत है-“भावी माताओं को ऐसा नहीं होना चाहिए कि वे आँसू भरकर कहें कि वे पुरुषों को समझती ही नहीं |” ऐसा माना जाता है कि सहशिक्षा के द्वारा यौन प्रवृत्ति को उचित मार्ग दिया जा सकता है | तृतीय कारक के रूप में भावनात्मक संतुलन को प्रस्तुत किया जा सकता है | ऐसा समझा जाता है कि पुरूष एक हिंसक पशु है और वह नारी के कारण सीमाओं को ध्वस्त नहीं कर पाता है | लड़के–लड़कियाँ परस्पर गुण ग्रहण कर सकते हैं- लड़के, लड़कियों से धैर्य और लड़कियाँ, लड़कों से आत्मनिर्भरता | इस प्रकार लड़के अधिक सुधरे बनते हैं तथा लड़कियाँ कम लज्जावती और नाजुक बनतीं हैं |
      सहशिक्षा के विरोध में अनेकों विद्वानों ने स्वर मुखरित किया है | विरोध स्वरूप अनेकों तथ्य प्रस्तुत किये हैं | मनोवैज्ञानिक स्तर पर- प्रथम, सहशिक्षा बालक की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करती है | द्वितीय, सहशिक्षा संस्थाओं में कामुकता की भावना का विकास होता है | सहशिक्षा संस्थाओं में कई प्रकार का यौन उल्लघन होना पाया गया है | नैतिक स्तर पर नये रोमांस या दुस्साहस की भावना उत्पन्न होने का भय बना रहता है | एक नवयुवक नैतिकता की उपेक्षा करके पतन की और अग्रसर हो सकता है | इसी प्रकार भावनात्मक असंतुलन सहशिक्षा संस्थाओं में पाया जाता है- सहशिक्षा संस्थाओं से कई बार नवयुवक एवं नवयुवतियाँ भावुकता की दृष्टि से दीवालिए होकर निकलते हैं | वे अनेकों प्रकार के मानसिक रोगों से पीड़ित हो जाते हैं | कई बार सहशिक्षा संस्थाओं में अध्यापक एवं विद्यार्थी लिंग-भावना के आकर्षण से ग्रस्त हो जाते हैं | आत्माभिव्यक्ति के अवसरों का अभाव पाया जाता है | साझे पाठ्यक्रम में छात्राओं को उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप क्रियाओं का प्रायः अभाव पाया जाता है | सामाजिक स्तर पर भी सहशिक्षा को आदर्श पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व की नैतिक संहिता का उल्लंघन माना जाता है |
       विभिन्न मतों एवं तथ्यों के विश्लेषण के उपरांत कहा जा सकता है कि आरंभिक स्तर पर सहशिक्षा हो | इस स्तर पर सभी का मतैक्य है कि 6-11 आयुवर्ग के लड़के-लड़कियों में किसी प्रकार के खतरे एवं दुष्परिणाम का भय नहीं रहता | माध्यमिक स्तर पर सहशिक्षा नहीं होनी चाहिये- एक प्राचीन कहावत है कि घी एवं अग्नि को साथ-साथ रखा जाए तो प्रज्वलन अवश्यम्भावी है | यही कारक युवक एवं युवतियों की 11-18 वर्ष की आयु में हुए शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों के कारण होते हैं | विश्वविद्यालय स्तर पर सहशिक्षा का प्रावधान होना चाहिए, क्योंकि अधिकांशतः 18 वर्ष की आयु के बाद वे पूर्णतः परिपक्व हो जाते  हैं | इस अवस्था में सहशिक्षा के सम्बन्ध में कम वाद-विवाद है |  


                     डॉ. वी. के पाठक

                     डॉ. सुरत प्यारी पाठक 

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

लिंगीय पक्षपात ग्रामीण विकास में बाधक (आलेख)

लिंगीय पक्षपात ग्रामीण विकास में बाधक 


डॉ. वी. के. पाठक
साभार: समाज कल्याण (वर्ष 47, अंक 5, दिसम्बर 2001) से पुनर्प्रकाशित 

राजनीति एवं प्रशासन में महिलाएं (आलेख)

राजनीति एवं प्रशासन में महिलाएं (आलेख) 




डॉ. वी. के. पाठक

साभार: समाज कल्याण (वर्ष 47, अंक 1, अगस्त 2001) से पुनर्प्रकाशित 

बालिका शिक्षा का महत्व (आलेख)

बालिका शिक्षा का महत्व (आलेख)


          -डॉ. वी. के. पाठक
साभार: समाज कल्याण (वर्ष 46, अंक 1, अगस्त 2000) से पुनर्प्रकाशित 

कृषि क्षेत्र और महिलाएं (आलेख)

कृषि क्षेत्र और महिलाएं 


                         -डॉ. वी. के. पाठक
साभार: समाज कल्याण (वर्ष 45, अंक 1, अगस्त 1999) से पुनर्प्रकाशित 

बाल श्रमिक और सर्वोच्च न्यायालय का फैसला (आलेख)

बाल श्रमिक और सर्वोच्च न्यायालय का फैसला



साभार: समाज कल्याण (वर्ष 44 , अंक 10, मई 1999) से पुनर्प्रकाशित 

जनसंख्या वृद्धि से पर्यावरणीय ह्रास (आलेख)

जनसंख्या वृद्धि से पर्यावरणीय ह्रास (आलेख) 





                      डॉ. वी. के. पाठक
          साभार: समाज कल्याण (वर्ष 41, अंक 11, जून 1996) से पुनर्प्रकाशित 

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

सच्ची भारतीयता के संस्कार दें नौनिहालों को (आलेख)

सच्ची भारतीयता के संस्कार दें नौनिहालों को

किसी भी राष्ट्र के सर्वतोन्मुखी विकास के लिये तथा आजादी की शमा को रोशन रखने के लिये यह अत्यंत आवश्यक है कि बच्चों में देश-प्रेम की भावना विकसित की जाए| आज के बच्चे ही कल देश के भावी कर्णधार होंगे | घर ही बच्चों की प्राथमिक शाला है | अतः माता-पिता का यह परम कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों में देश-प्रेम की भावना पैदा करें, जिस तरह हम अपने माता-पिता, भाई-बहन तथा परिवारीजनों से प्रेम करते हैं, उसी प्रकार देश के प्रति अनुराग भी स्वाभाविक भावना है, सिर्फ़ जरूरत है, उसे विकसित करने की |
जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो उसके अहित की बात हम स्वप्न में भी नहीं सोच सकते | यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि देश के प्रति प्रेम ही उन्हें इसका अहित करने से रोकेगा | फिर न आतंकवाद होगा, न उग्रवाद | भारत माता के प्रति श्रद्धा का भाव देश-वासियों में एक होने एवं सब भेदों को भूलकर एक मातृभूमि की सन्तान होने का प्रेम जगाता है |
रीति-रिवाज, धर्म, उपासना, भाषा-वेशभूषा के भेदों के विद्यमान होने पर भी राष्ट्र के सम्मान की भावना पारंपरिक प्रेम व सद्भावों को विकसित करती है |
बच्चों के कोमल मन पर सर्वाधिक प्रभाव माता-पिता के आचरण का पड़ता है | भाषण देने की अपेक्षा हमारे व्यवहार से वे अधिक सीखते हैं | हमारे मन में यदि देश-परम की भावना है तो स्वभाविक रूप से वे हमारे बच्चों में भी पनपेगी | कितने घरों में आज हमारी गौरवशाली संस्कृति का गुणगान व अनुसरण होता है? कितने ऐसे घर हैं जहाँ ‘युग’ अथवा ‘स्वराज’ जैसे धारावाहिकदेखे जाते हैं ? बच्चों में देश के प्रति प्रेम व सम्मान विकसित करने के लिये कुछ सुझाव हैं-
१.       भूलकर भी बच्चों के सामने देश की बुराई न करें |
२.       रेडियो तथा दूरदर्शन पर देशभक्ति गीत व धारावाहिक सुनें व देखें तथ बचों को भी प्रेरणा दें |
३.       स्वतंत्रता-सेनानियों के चित्र घर में टाँगें तथा स्वतंत्रता का महत्व बतलाएँ |
४.       महापुरुषों की कहानियाँ उन्हें बताएँ | महापुरुषों की जीवनियाँ तथा उनसे सम्बन्धित साहित्य लाकर दें |
५.       राष्ट्रीय ध्वज, गान या गीत एवं दिवस का महत्व एवं सम्मान बताएँ |
६.       बच्चों को स्वदेशी चीजों को अपनाने की सलाह दें | विदेशों के सव्ज बाग़ न दिखाएँ क्योंकि “ लाख लुभाये महल पराये, अपना घर फिर अपना घर है|”


डॉ. वी. के. पाठक

साभार: ‘मानव कल्याण’ (अंक १, अप्रैल २०००) से पुनर्प्रकाशित